Book Title: Rajasthan ka Yug Sansthapak Katha Kavya Nirmata Haribhadra
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 2
________________ हरिभद्र नामके कितने व्यक्ति हुए और इनमें 'समराइच्च कहा'के लेखक कथाकार कौनसे हरिभद्र हैं ? ईस्वी सन्की चौदहवीं शताब्दी तकके उपलब्ध जैन साहित्यमें हरिभद्र नामके आठ आचार्योंका उल्लेख मिलता है। इन आठ आचार्यों में 'समराइच्चकहा' और 'धूर्ताख्यान' प्राकृत कथा-काव्यके लेखक आचार्य हरिभद्र सबसे प्राचीन हैं। ये 'भवविरहसूरि' और 'विरहांककवि' इन दो विशेषणोंसे प्रख्यात थे। ___ 'कुवलय माला के रचयिता उद्योतन सूरिने (७०० शक) इन्हें अपना प्रमाण और न्याय पढ़ानेवाला गुरु कहा है। 'उपमितभवप्रपंच कथा' के रचयिता सिद्धर्षि (९०६ ई०) ने “धर्मबोधकरो गुरु के रूपमें स्मरण किया है। मनि जिनविजयजीने अपने प्रबन्धमें लिखा है-"एतत्कथनमवलम्ब्यैव राजशेखरेण प्रबन्धकोषे मुनिसुन्दरेण उपदेशरत्नाकरे, रत्नशेखरेण च श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ, सिद्धषिहरिभद्रशिष्यत्वेन वर्णितः । एवं पडीवालगगच्छीयायामकस्यां प्राकृतपद्धावल्यामपि सिद्धर्षिहरिभद्रयोः समसमयत्तित्वलिखितं समुपलभ्यते"३ इससे स्पष्ट है कि भवविरह हरिभद्र बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने स्वयं अपने आपको यामिनी महत्तराका पुत्र जिनमतानुसारी, जिनदत्ताचार्यका शिष्य कहा है। हरिभद्रके समयके सम्बन्धमें निम्नलिखित चार मान्यताएं प्रसिद्ध हैं। (१) परम्परा प्राप्त मान्यता-इसके अनुसार हरिभद्रका स्वर्गारोहणकाल विक्रम सं० ५८५ अर्थात् ई० सन् ५२७ माना जाता रहा है। (२) मुनि जिनविजयजीकी मान्यता-अन्तः और बाह्य प्रमाणोंके आधारपर इन्होंने ई० सन् ७०० तक आचार्य हरिभद्रका काल निर्णय किया है। (३) प्रो० के० बी० आभ्यंकरकी मान्यता-इस मान्यतामें आचार्य हरिभद्रका समय विक्रम संवत् ८००-९५० तक माना है। (४) पंडित महेन्द्रकुमारजीकी मान्यता–सिद्धिविनिश्चयकी प्रस्तावनामें पंडित महेन्द्रकुमारजीने आचार्य हरिभद्र का समय ई० सन् ७२० से ८१० तक माना है। मुनि जिनविजयजीने आचार्य हरिभद्रके द्वारा उल्लिखित विद्वानोंकी नामावली दी है। इस नामावलीमें समयकी दृष्टिसे प्रमुख हैं धर्मकीर्ति, (६००-६५०), धर्मपाल (६३५ ई०), वाक्यपदीयके रचयिता भर्तृहरि (६००-६५० ई०), कुमारिल (६२० लगभग ७०० ई० तक), शुभगुप्त (६४० से ७०० ई. तक) और शान्तरक्षित (ई० ७०५-७३२) । इस नामावलीसे ज्ञात होता है कि हरिभद्रका समय ई० सन् ७०० के पहले नहीं होना चाहिये । हरिभद्रके पूर्व समयकी सीमा ई० सन् ७ ० के आस-पास है। विक्रम संवत् ५८५ की पूर्व सीमा १. अनेकान्त जयपताका, भाग २, भूमिका, पृ० ३०, २. जो इच्छइ भव-विरहं भवविरहं को ण वंदए सुएषं समय-सम-सत्यगुरुणोसमरमियंका कहा जस्स ॥ कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ०४, ३. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ० ७, ४. आवश्यक सूत्र टीका प्रशस्ति भाग ५. पंचसए पणसीए....."धम्मरओ देउ मुरुखसु । प्रद्युम्न चरित, विचा० गा० ५३२. ६. हरिभद्रस्य समयनिर्णयः १० १७ ७. विंशविशिकाकी प्रस्तावना १६८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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