Book Title: Rajasthan ka Yug Sansthapak Katha Kavya Nirmata Haribhadra Author(s): Nemichandra Shastri Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 8
________________ अपने विकारोंको इतर व्यक्तियोंपर आक्षिप्त करना। अग्निशर्मा अपने बचपनके संस्कार और उस समय में उत्पन्न हुई हीनत्वकी भावनाके कारण गुणसेन द्वारा पारणाके भूल जानेसे क्रुद्ध हो निदान बांधता है। गुणसेनका व्यक्तित्व गुणात्मक गुणवृद्धिके रूपमें और अग्निशर्माका व्यक्तित्व भागात्मक भागवृद्धि के रूपमें गतिमान और संघर्षशील है । इन दोनों व्यक्तित्वोंने कथानककी रूप रचनामें ऐसी अनेक मोड़ें उत्पन्न की हैं, जिनसे कार्य व्यापारकी एकता, परिपूर्णता एवं प्रारम्भ, मध्य और अन्तकी कथा योजनाको अनेक रूप और संतुलन मिलते गये हैं। यह कथा किसी व्यक्ति विशेषका इतिवृत्त मात्र ही नहीं, किन्तु जीवन्त चरित्रोंकी सृष्टिको मानवताकी ओर ले जाने वाली है। धार्मिक कथानकके चौखटेमें सजीव चरित्रोंको फिटकर कथाको प्राणवन्त बनाया गया है । देश-कालके अनुरूप पात्रोंके धार्मिक और सामाजिक संस्कार घटनाको प्रधान नहीं होते देते - प्रधानता प्राप्त होती है, उनकी चरित्र निष्ठाको । घटनाप्रधान कथाओं में जो सहज आकस्मिक और कार्यको अनिश्चित गतिमत्ता आ जाती है, उससे निश्चित ही यह कथा संक्रमित नहीं है। सभी घटनाएँ कथ्य हैं और जीवनकी एक निश्चित शैली में वे व्यक्तिके भीतर और बाहर घटित होती है । घटनाओंके द्वारा मानव प्रकृतिका विश्लेषण और उसके द्वारा तत्कालीन सामन्त वर्गीय जनसमाज एवं उसकी रुचि तथा प्रवृत्तियोंका प्रकटीकरण इन कथाको देश-कालकी चेतनासे अभिभूत करता है । इसके अतिरिक्त गुणसेनकी समस्त भावनाओंमें उसका मानस चित्रित हुआ है। क्रोध, घृणा आदि मौलिक आधारभूत वृत्तियोंको उनकी रूप व्याप्ति और संस्थितिमें रखना हरिभद्रकी सूक्ष्म संवेदनात्मक पकड़का परिचायक है। धार्मिक जीवन में भागीदार बननेकी चेतना गुणसेनकी वैयक्तिक नहीं सार्वजनीन है। हरिभदने चरित्रसृष्टि, घटनाक्रम और उद्देश्य इन तीनोंका एक साथ निर्वाह किया है। अग्निशर्माका हीनत्व भावकी अनुभूतिके कारण विरक्त हो जाना और वसंत पुरके उद्यान में तपस्वियोंके बीच तापसोवृत्ति धारण कर उग्र तपश्चरण करना तथा गुणसेनका राजा हो जाने के पश्चात् आनन्द विहार के लिए वसंतपूरमें निर्मित विमानछन्दक राजप्रासादमें जाना और यहाँ अग्निशर्माको भोजनके लिए निमंत्रित करना तथा भोजन सम्पादनमें आकस्मिक अन्तराय आ जाना; आदि कथासूत्र उक्त तीनोंको समानरूपसे गतिशील बनाते हैं । इस कथामें दो प्रतिरोधी चरित्रोंका अवास्तविक विरोधमूलक अध्ययन बड़ी सुन्दरतासे हुआ है। गुणसेन चिढ़ानेसे अग्निशर्मा तपस्वी बनता है, पुनः गुणसेन घटना क्रमसे अग्निशर्माके सम्पर्क में आता है । अनेक बार आहारका निमंत्रण देता है। परिस्थितियोंसे बाध्य होकर अपने संकल्पमें गुणसेन असफल हो जाता है। उसके मनमें अनेक प्रकारका पश्चात्ताप होता है। वह अपने प्रमादको धिक्कारता है। आत्मग्लानि उसके मनमें उत्पन्न होती है, कुलपतिसे जाकर क्षमा-याचना करता है । पर अन्ततः अग्निशर्मा उसे अपने पूर्व अपमानके क्रमकी कड़ी ही मानता है। ईर्ष्या विद्वेष और प्रतिशोधसे तापसी जीवनको कलुषित कर गुणसेन से बदला लेने का संकल्प करता है । यहाँसे गुणसेनके चरित्रमें आरोहण और अग्निशर्मा के चरित्र में अवरोहणकी स्थिति उत्पन्न हो जाती है । चरित्रोंके बिरोधमूलक तुलनात्मक विकासका यह क्रम कथामें अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंग से नियोजित हुआ है। , चरित्र स्थापत्यका उज्ज्वल निदर्शन अग्निशर्माका चरित्र है। अतः अग्निशर्माका तीन बार भोजनके आमन्त्रण में भोजन न मिलनेपर शान्त रह जाना, उसे साधु अवश्य बनाता। वह परलोकका श्रेष्ठ अधिकारी होता, पर उसे उत्तेजित दिखलाये बिना कथामें उपचार वक्रता नहीं आ सकती थी। कथा में काव्यत्वका संयोजन करने के लिए उसमें प्रतिशोधकी भावनाका उत्पन्न करना नितान्त आवश्यक था । साधारण स्वरका मानव जो मात्र सम्मानकी आकांक्षासे तपस्वी बनता है, तपस्वी होनेपर भी पूर्व विरोधियोंके प्रतिशोधकों १७४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10