Book Title: Rajasthan ka Yug Samsthapak Katha Kavya Nirmata Haribhadra
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 7
________________ प्रणाली में पूर्वजन्मके क्रियाकलापोंकी जाति स्मरण द्वारा स्मृति कराकर कथाओंमें रसमत्ता उत्पन्न की जाती है। इस स्थापत्यकी विशेषता यह है कि कथाकार घटनाओंका वर्णन करते-करते अकस्मात् कथाप्रसंगके सूत्रको किसी विगत घटनाके सूत्रसे जोड़ देता है; जिससे कथाकी गति विकासकी ओर अग्रसर होती है। आधुनिक कथाकाव्य में इसे 'फ्लेशक' पद्धतिका नाम दिया गया है। हरिभद्रने घटनाओं को या किसी प्रमुख घटनाके मार्मिक वर्णनको कथाके गतिमान सूत्रके साथ छोड़ दिया है पश्चात् पिछले सूत्रको उठाकर किसी एक जीवन अथवा अनेक जन्मान्तरोंकी घटनाओं का स्मरण दिलाकर कथाके गतिमान सूत्रमें ऐसा धक्का लगाता है, जिससे कथा जाल लम्बे मैदानमें लुढ़कती हुई फुटबॉल के समान तेजी से बढ़ जाता है। हरिभद्र इस सूत्रको देहली दोपक न्यायसे प्रस्तुत करते हैं, जिससे पूर्व और परवर्त्ती समस्त घटनाएँ आलोकित होकर रसमय बन जाती हैं । हरिभद्रने किसी बात या तथ्यको स्वयं न कहकर व्यंग्य या अनुभूति द्वारा ही प्रकट किया है। व्यंग्यकी प्रधानता रहने के कारण 'समराइच्चकहा' और 'धूर्ताख्यान' इन दोनोंमें चमत्कारके साथ कथारस प्राप्त होता है। कथांश रहने पर व्यंग्य सहृदय पाठकको अपनी ओर आकृष्ट करता है। इस शिल्प द्वारा हरिभद्रने अपनी कृतियों का निर्माण इस प्रकार किया है जिससे अन्य तत्त्वोंके रहनेपर भी प्रतिपाद्य व्यंग्य बनकर प्रस्तुत हुआ है । समुद्र यात्रामें तूफानसे जहाजका छिन्न-भिन्न हो जाना और नायक और उपनायकका किसी लकड़ी या पटके सहारे समुद्र पार कर जाना एक प्रतीक है। यह प्रतीक आरम्भमें विपत्ति, पश्चात् सम्मिलन - सुखकी अभिव्यञ्जना करता है। 'समराइच्चकहा' में अन्यापदेशिक शैलीका सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। प्रथमभवमें राजा गुणसेनकी अपने महलके नीचे मुर्दा निकलने से विरक्ति दिखलायी गई है। यहाँ लेखकने संकेत द्वारा ही राजाको उपदेश दिया है । संसारकी असारताका अट्टहास इन्द्रजालके समान ऐन्द्रिय विषयों की नश्वरता एवं प्रत्येक प्राणीकी अनिवार्य मृत्युकी सूचना भी हरिभद्रने व्यंग्य द्वारा ही दी है । हरिभद्रने कार्य - कारण पद्धतिकी योजना भी इसी शैलीमें की है । 'समराइच्चकहा' की आधारभूत प्रवृत्ति प्रतिशोध भावना है। प्रधान कथामें यह प्रतिशोधको भावना विभिन्न रूपोंमें व्यक्त हुई है । लेखकने इसे निदान कथा भी कहा है | अग्निशर्मा और गुणसेन ये दोनों नायक और प्रतिनायक हैं। गुणसेन नायक है और अग्निसेन प्रतिनायक। इन दोनोंके जन्म-जन्मान्तरकी यह कथा नौभवों तक चलती है और गुणसेनके नौभवों की कथा ही इस कृतिके नौ अध्याय हैं। प्रत्येक भवकी कथा किसी विशेषस्थान, काल और क्रियाकी भूमिका में अपना पट परिवर्तन करती है । जिस प्रकार नाटक में पर्दा गिरकर या उठकर सम्पूर्ण वातावरणको बदल देता है, उसी प्रकार इस कथाकृति में एक जन्मकी कथा अगले जन्मकी कथाके आने पर अपना वातावरण, काल और स्थानको परिवर्तित कर देती है। सामान्यतः प्रत्येक भवकी कथा स्वतंत्र है ! अपने में उसकी प्रभावान्विति नुकीली है । कथाकी प्रकाशमान चिनगारियाँ अपने भवमें ज्वलन कार्य करती हुई, अगले भवको आलोकित करती हैं । प्रत्येक भवकी कथा में स्वतंत्र रूपसे एक प्रकारकी नवीनता और स्फूर्तिका अनुभव होता है। कथाकी आद्यन्त गतिशील स्निग्धता और उत्कर्ष अपने में स्वतंत्र है। स्थूल जाति और धार्मिक साधनाकी जीवन प्रक्रियाको कलाके आवरण में रख जीवनके बाहरी और भीतरी सत्योंकी अवतारणाका प्रयास प्रथम भवकी कथाका प्रधान स्वर है । सहनशीलता और सद्भावनाके बलसे ही व्यक्ति के व्यक्तित्वका विकास होता है। धार्मिक परिवेशके महत्वपूर्ण दायित्व के प्रति इस कथाका रूप विन्यास दो तत्वोंसे संघटित है । कर्म-जन्मान्तरके संस्कार और हीनत्वको भावनाके कारण Jain Education International इतिहास और पुरातत्त्व १७३ : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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