Book Title: Rajasthan ka Yug Samsthapak Katha Kavya Nirmata Haribhadra
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 6
________________ धारा और नया रूप देनेके कारण अपने क्षेत्रमें हरिभद्र अद्वितीय हैं । हरिभद्रने स्थापत्योंको नया गठन दिया है। तरंगवती में पूर्वजन्मकी स्मृतियाँ और कर्म विकास केवल कथाको प्रेरणा देते हैं, पर 'समराइच्च कहा ' में पूर्व जन्मोंकी परम्पराका स्पष्टीकरण, शुभाशुभ कृतकर्मों के फल और श्रोताओं या पाठकोंके समक्ष कुछ नैतिक सिद्धान्त भी उपस्थित किये गये हैं । हरिभद्रके स्थापत्यकी मौलिकता हरिभद्र मौलिक कथाकाव्य के रचयिता हैं । इन्होंने सर्वप्रथम काव्यके रूप में कथावस्तुकी योजना की है । इनकी 'टेकनिक' वाणभट्टके तुल्य है । कला के विभिन्न तथ्यों तथा उपकरणोंकी योजना अनुभूति और लक्ष्यकी एकतानताके रूपमें की है । जैसे कोई चित्रकार अपनी अनुभूतिको रेखाओं और विभिन्न रंगोंके आनुपातिक संयोगसे अभिव्यक्त करता है, अमूर्त अनुभूतिको मूर्तरूप देता है, उसी प्रकार कथाकाव्यका रचयिता भी भावोंको वहन करने के लिए विभिन्न वातावरणों में पात्रोंकी अवतारणा करता है । आशय यह है कि निश्चित लक्ष्य अथवा एकान्त प्रमाणकी पूर्तिके लिए रचना में एक विधानात्मक प्रक्रिया उपस्थित करनी पड़ती है, जिससे कथाकाव्य रचयिताका स्थापत्य महनीय बन जाता है । हरिभद्र ऐसे प्रथम कथाकार हैं, जिन्होंने सौन्दर्यका समावेश करते समय वस्तु और शिल्प दोनोंको समान महत्त्व दिया है । इनकी दृष्टिमें वस्तुकी अपेक्षा प्रकाश भंगी अभिव्यक्तिकी वक्रता अधिक आवश्यक है । अतः भाव विचार तो युग या व्यक्ति विशेषका नहीं होता, वह सार्वजनीन और सार्वकालिक ही होता है । नया युग और नये स्रष्टा उसे जिस कुशलता से नियोजित करते हैं वही उनकी मौलिकता होती है । अलंकारशास्त्रियोंने भी भावसे अधिक महत्त्व उसके प्रकाशनको दिया है। प्रकाशन प्रक्रियाको शैलीका नाम दिया जाता है । अतः जिसमें अनुभूति और लक्ष्यके साथ कथावस्तुकी योजना, चरित्रअवतारणा, परिवेशकल्पना, एवं भाव सघनताका यथोचित समवाय जितने अधिक रूपमें पाया जाता है, वह कथाकाव्य निर्माता उतना ही अधिक मौलिक माना जाता है । हरिभद्रने 'समराइच्चकहा' में मौलिकता और काव्यात्मकताका समावेश करनेके लिए अलंकृत वर्णनोंके साथ कथोत्थप्ररोह, पूर्वदीप्ति प्रणाली, कालमिश्रण और अन्यापदेशिकताका समावेश किया है । कथोत्थप्ररोहसे तात्पर्य कथाओंके सघन जालसे है, जिस प्रकार केलेके स्तम्भकी परत एक पर दूसरी और दूसरीपर तीसरी आदि क्रमसे रहती हैं, उसी प्रकार एक कथापर उसकी उद्देश्यकी सिद्धि और स्पष्टता के लिए दूसरी कथा और दूसरी के लिए तीसरी कथा आदि क्रममें कथाएँ नियोजित की जाती हैं । हरिभद्रने वटप्ररोह के समान उपस्थित कथाओंमें संकेतात्मकता और प्रतीकात्मकताको योजना की है। परिवेशों या परिवेश- मंडलोंका नियोजन भी जीवन और जगत् के विस्तारको नायक और खलनायकके चरित गठनके रूपमें उपस्थित किया हैं । रचना में सम्पूर्ण इतिवृत्तको इस प्रकार सुविचारित ढंगसे नियोजित किया है, कि प्रत्येक खण्ड अथवा परिच्छेद अपने परिवेशमें प्राय: सम्पूर्ण-सा प्रतीत होता हैं और कथाकी समष्टि योजना प्रवाहको उत्कर्षोन्मुख करती है । एक देश और कालकी परिमितिके भीतर और कुछ परिस्थितियोंकी संगति में मानव जीवन के तथ्यों की अभिव्यञ्जना की जाती है। जिस प्रकार वृत्त कई अंशोंमें विभाजित किया जाता है और उन अंशोंकी पूरी परिधि में वृत्तकी समग्रता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार कथोत्थप्ररोहके आधारपर इतिवृत्त के समस्त रहस्य उद्घाटित हो जाते हैं । कथाकारकी मोलिकता वहीं समझी जाती है, जहाँ वह कथासूत्रोंको एक खूँटी पर टाँग देता है । हरिभद्र ने अपनी 'बीजधर्मा' कथाओं में काव्यत्वका नियोजन पूर्वदीप्ति प्रणाली द्वारा किया है। इस १७२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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