Book Title: Purusharth Siddhyupaya Author(s): Manikchand Chavre Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 8
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ८. सुखीयों को सुखभोग करते समय ही मारना चाहिए क्यों की सुखमग्न अवस्था में मारने से आगामी भवमें वे सुखी ही होंगे । ९. धर्म की इच्छा करनेवाले शिष्य ने धर्म प्राप्ति के हेतु अपने गुरुदेव की हत्या करना चाहिए । १०. धनलोलुपी गुरु के चक्कर में आकर खारपटिकों की मान्यता के अनुसार मृत्यु को स्वीकार कर धर्म मानना । २५२ ११. समागत अतिथि के लिए बहुमान की भावना से अपना निजी मांस का दान करना । ये ऐसे विकल्प हैं जो सामान्य सारासार विचार से भी परे हैं । परंतु कम ज्यादा मात्रा में इस प्रकार के अन्यान्य विकल्पों का भूत आज भी पढे हुए और अनपढ दोनों के सिरपर सवार है । ऐसे विकल्पों के चक्कर में नहीं पडना चाहिए । इसलिए आचार्य श्री ने जगह जगह पर जो संकेत किए हैं वे निस्संशय डूबती हुई जीवन नौका के लिए दीपस्तंभ के समान है । जैसे अभेद दृष्टि में विशुद्धता चारित्र है, उसी प्रकार विशुद्धता का अभाव पाप है । वही पाप असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि अनेकरूप दिखाई देता जो अभेद दृष्टि में ' हिंसा ' ही होता है इस आशय को जगह जगह बतलाया गया है । भेद - अभेद वर्णन परस्पर सम्मुख होकर हुआ है । हिंसा वर्णन सापेक्ष विस्तृत इसीलिए किया गया है जिससे पापों की आत्मा सुस्पष्ट हो हिंसा पाप का केन्द्र है । असत्यादि हिंसा के पर्याय है यह भी स्पष्ट हो जाय । असत्य के चार भेद - ( १ ) सत् को भी यहाँपर नहीं है कहना (२) अविद्यमान वस्तु को ( ३ ) अपने स्वरूप से विद्यमान वस्तु को ' वह है ' ( ४ ) गर्हित -- सावद्य और अप्रिय भाषा प्रयोग भी भाषा प्रयोगों में असत्य ही समझना चाहिए । समीचीन प्रयोगों का त्याग आवश्यक होता है उनका विधान श्लोक ९६-९७-९८ में अवश्य ही देखना चाहिए | श्रावक अवस्था में (भोगोपभोग के लिए साधन स्वरूप पाप को छोडने में अशक्य होता है ऐसी अवस्था में यावत् शक्य असत्य का भी सदा के लिए त्याग होना चाहिए यह विधान मार्ग दर्शक है । अर्थात विद्यमान् को असत् कहना जैसे देवदत्त होने पर भिन्न रूप से कहना जैसे यहां घट है ( न होने पर भी इस रूप से कहना जैसे गाय को 'घोडा' कहना असत्य है । जहां जहां प्रमत्त योग है उन सब व्यवहार में भी सफलता के लिए जिन भाषा चोरी के त्याग कथन में भी प्रमत्तयोग विशेषण अनुस्यूत है, अर्थ (धन) पुरुषों का बहिश्चर प्राण होने से परद्रव्य-हरण में प्राणों की हत्या समझना चाहिए। जहां चोरी वहां हिंसा अविभावरूप से होती है । परंतु बुद्धिपूर्वक प्रमत्तयोग का अभाव होने से कर्म-ग्रहण चोरी नहीं कही जाती आदि अंशों का वर्णन संक्षेप आया है । अब्रह्म स्वरूप वर्णन में द्रव्यहिंसा - भावहिंसा - कुशीलत्याग के क्रम का विधान चार श्लोकों में है । रागादि उत्पत्ति के आधीनता से कुशील में हिंसा अवश्यंभावी है यह भी बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11