Book Title: Purusharth Siddhyupaya
Author(s): Manikchand Chavre
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 6
________________ २५० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ संपूर्ण रूप से संपूर्ण पापों से अलिप्तता होने से यति स्वयं समयसाररूप होता है और गृहस्थ एकदेशविरत और उपासक के रूप होता है । आत्मपरिणाम के घातक होने से असत्य भाषणादि जितने भी पाप हैं वे केवल शिष्यों को हिंसा का स्वरूप स्पष्ट हो इसी हेतु से बतलाए हैं। कषाय प्रवृत्तिपूर्वक प्राणों का घात होना द्रव्य हिंसा है। रागादि विकारों की उत्पत्ति भाव हिंसा है और उत्पत्ति न होना अहिंसा है। (श्लोक ४४) ___ यदि रागादिकों का आवेश वहीं है और आचरण सावधान है फिर भी यदि योगायोग से प्राण व्यपरोपण होता है तो वह हिंसा नहीं है । (श्लोक ४५) प्रत्युत जीव घात हो या न हो यदि रागादि है तो वहां हिंसा अवश्य है । (श्लोक ४६) कषाय वश जीवात्मा अवश्यहि आत्मघाती है । अतएव प्रमत्त योग ही हिंसा है। (श्लोक ४७-४८) अतिसूक्ष्म हिंसा का भी आधार परवस्तु नहीं है फिर भी हिंसा के आयतों का त्याग परिणाम विशुद्धि के लिए उपादेय है, इस प्रकार द्रव्यभावों का सुमेल है। इस संधि के दृष्टिपथ में न लेनेवाला बहिरात्मा है, क्रिया में आलसी और चारित्र परिणामों का घाती है। इन विवेक सूत्रों के आशय को समझनेवालों को ही निम्नलिखित विकल्पों से निवृत्ति सहज ही होती है । १. हिंसा न करते हुए भी एक व्यक्ति हिंसा फल का भोक्ता होता है और दूसरे किसी एक के द्वारा हिंसा होते हुए भी वह हिंसा का फलभागी नहीं होता है । (श्लोक ५१) २. किसी एक को थोडी हिंसा महान् फलदायी होती है, दूसरे किसी एक को द्वारा घटित महाहिंसा भी अल्प फलदायी होती है । (श्लोक ५२) ३. सहयोगियों के द्वारा एक समय में की गयी हिंसा जहा एक को मंद फल देती है वहां वही हिंसा दूसरों को तीव्र फल देती है । (श्लोक ५३) ४. परिणामों के कारण कभी हिंसा का फल पहले प्राप्त होता है कभी हिंसा के क्षण में ही, कभी बाद में और कभी हिंसा पूरी होने के पहले ही फल प्राप्त होता है । (श्लोक ५४ ) ५. कभी हिंसा करनेवाला एक होता है और फल भोक्ता अनेक होते हैं। प्रत्युत हिंसा करनेवाले अनेक और फल भोक्ता एक होता है । (श्लोक ५५) ६. किसी एक को हिंसा फलकाल में एकमात्र हिंसा पाप को फलदायी होती है और दुसरे को वही हिंसा अहिंसा का अधिक मात्रा में फल देती है । (श्लोक ५६) ७. किसी एक की प्रवृत्ति बाह्य में जो अहिंसा (प्रतीत ) होती है वह अन्त में हिंसा के फल स्वरूप सिद्ध होती है और किसी जीव की हिंसा भी अन्ततोगत्वा अहिंसा के फलस्वरूप से फलती है। (श्लोक ५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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