Book Title: Pudgal aur Atma ka Sambandh Author(s): Anantprasad Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ विभिन्न यन्त्रों एवं उपकरणों में जब तक बिजली प्रवाहित नहीं होती ये यन्त्र और उपकरण कुछ नहीं करते, परन्तु उनमें विद्युत् आते ही ये अपनी-अपनी संरचना या बनावट के अनुसार काम करने लगते हैं। बिजली हटाते ही पुनः चुप, बेकार हो जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा की मौजूदगी में शरीरधारी अपने-अपने शरीर की संरचना एवं बनावट के अनुसार काम करते हैं। आत्मा के चले जाने पर वे जड़ हो जाते हैं उन्हें मरा हुआ कहा जाता है / आत्मा स्वयं कुछ नहीं करता, सब कुछ शरीर यन्त्र ही करता है। पर अकेला जड़ शरीर भी कुछ नहीं कर सकता पर चेतन आत्मा की विद्यमानता में सारा शरीर एवं सभी इन्द्रियां कार्यशील रहती हैं और दुःख, सुख, आनन्द आदि की अनुभूति भी होती है। आत्मा न हो तो कोई अनुभूति न हो। इसीलिए यह कहते हैं कि आत्मा ही दुःख-सुख अनुभव करता है एवं कर्ता और भोक्ता है। आत्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म तथा नोकर्मरूप पुद्गलपिंड से बद्ध होने के कारण जड़ व अचेतन शरीर के संसर्ग से स्वयं को रूपी मानता है और उसके साथ परिभ्रमण करता रहता है। आत्मा का स्वरूप निविकार, नित्यानन्द, स्वसमयसार रूप अमूर्तिक है। वह चक्षुरादि बाह्य न्द्रियगम्य नहीं, अपितु ज्ञानगम्य है। अपने वास्तविक स्वरूप का बोध न होने के कारण वह अवास्तविक बाह्य शरीरादि को निजस्वरूप मान लेता है। यदि वह सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छः द्रव्य तथा पांच अस्तिकायादि के बोध द्वारा स्वनिरीक्षक बन जाए, तो उसे अपनी वास्तविकता का पता चलेगा जिसके द्वारा वह अन्त तक अविनाशी फल को देकर अनन्तकालपर्यन्त सुख प्राप्त कर सकता है / यह आत्मा इस सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है / कहा भी है - अरविंदी क्षिसलनकुमात्मनिखं देह बोलीकण्गे तां / गुरियागं शिलेयोळ्सुवर्णमरलोळ सौरम्यमाक्षीरदोल् // नरुनेयकाष्ठदोळग्नियिर्पतेरदिंदीमेययोळीदिपर्ने। दरिदभ्यासिसे कागुमेंदरुपिदै ! रत्नाकराधीश्वरा // 4 // वास्तविक, अमूत्तिक, नित्य-निरंजन आत्मस्वरूप बाह्य चर्मदृष्टि द्वारा दृष्टिगोचर नहीं होता, अपितु आत्मानन्दस्थितिज्ञानरूपी चक्षु द्वारा दृष्टिगोचर होता है। यह आत्मा शरीर में सर्वांगरूप से व्याप्त है, अतएव व्यवहार और निश्चय धर्म के द्वारा उसका मन्थन करने से अपने आप में ही शुद्धात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। अपि च, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय से बाह्य न्द्रियवासना के आवरण को हटाकर आत्मा शीघ्र सुवर्ण के समान शुद्ध निर्मल केबलज्ञान रूप बनकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। (आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह, भाग 4, दिल्ली, वी०नि० सं० 2484 से) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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