Book Title: Pudgal aur Atma ka Sambandh Author(s): Anantprasad Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ पुद्गल और आत्मा का सम्बन्ध आचार्य अनन्त प्रसाद जैन व्यवहार और निश्चय दोनों की हो जैन धर्म में बड़ी महत्ता कही गई है । निश्चय तो लक्ष्य है और व्यवहार उस तक पहुंचने का मार्ग । षद्रव्य, सप्ततत्व, नवपदार्थ का शास्त्रोक्त ज्ञान तो व्यवहार-सम्यक्-दर्शन या व्यवहार-श्रुत-ज्ञान है । आत्मा (जीव), पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये षद्रव्य हैं । जीव (आत्मा) क्या है ? पुद्गल क्या है ? तथा दूसरे तत्व क्या हैं ? यह सब गुरुओं या ज्ञानियों के उपदेश या स्वयं शास्त्रों के अध्ययन से जान लेना ही व्यवहार-सम्यक-दर्शन है। इसे ही शुद्ध-सम्यक-दर्शन मान लेना भारी भूल है । शास्त्रों में कही गई या गुरुओं और विद्वानों द्वारा उपदेशित जानकारी पराश्रित होती है । पुद्गल आत्मा से कैसे मिलता है इसकी स्वयं की अनुभूतियां जानकारी करना या हो जाना ही सही शुद्ध-सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-ज्ञान है। लोग इस शुद्ध ज्ञान दर्शन को इसलिए नहीं पाते कि वे व्यवहार तथा श्रुत दर्शन ज्ञान को पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं या उसी में भूले रहते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि 'योग' (मन, वचन, काय के हलन चलन) द्वारा पुद्गल आते हैं और मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, विषय एवं 'कषाय' (क्रोध, मान, माया, लोभ) के कारण आत्मा में सट (बंध) जाते हैं। पर आत्मा तो अरूपी, अदृश्य, अस्पृष्य है उसमें पुद्गल कैसे सटता तथा बन्ध करता है इस पर कभी कोई विचार नहीं करता । अतः ऐसा ज्ञान या दर्शन श्रुतमात्र ही रहता है शुद्ध नहीं होता। स्वयं की अनुभूति हुए बिना ऐसी मान्यता व्यवहार ही है। इससे मोक्ष या सही मोक्षमार्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। षट् द्रव्यों का ज्ञान होना तो आवश्यक ही है। ये सभी स्वतंत्र द्रव्य हैं। कोई भी एक-दूसरे में नहीं मिलता न परिणत होता है। आत्मा और पुद्गल साथ-साथ --एक में एक घुल-मिलकर रहते हुए भी अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। आत्मा क्या है इसकी कुछ जानकारी शास्त्रों या ज्ञानी गुरुओं के उपदेश से हो सकती है। अरूपी-अशरीरी आत्मा को कर्म पुद्गल कैसे बांध लेते हैं---कैसे सट जाते हैं यह एक कठिन समस्या है जिसका समाधान किसी शास्त्र में नहीं मिलता। आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध एक वैज्ञानिक तथ्य है । परम्परा से चली आई यह गुत्थी आधुनिक विज्ञान द्वारा ही सुलझाई जा सकती है। इसका ज्ञान गुरुओं-पण्डितों में नहीं होने से आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध का ज्ञान अधूरा ही रह जाता है। न तो शुद्ध-सम्यक्-दर्शन ही होता है न शुद्ध-सम्यक्-ज्ञान ही। फिर लोग अपने को रत्नत्रय का धारी समझ बैठते हैं जो महान् भूल है। ऐसे लोग कितना भी तप करें मोक्षमार्ग के पथिक नहीं हो सकते। सम्यक् ज्ञान का अर्थ है किसी विषय या वस्तु के विषय में, वैज्ञानिक एवं पूर्ण विधिवत् ज्ञान, जैसे---किसी ने अंगूर न खाए हों केवल सुन-सुनाकर या पुस्तकों में पढ़कर अंगूरों के विषय में जानकारी पा ली हो तो उसे शुद्ध सच्चा, सही ज्ञान नहीं कह सकते । जब वह व्यक्ति विभिन्न प्रकार के अंगूरों को देख ले और स्वयं चख भी ले, खा ले, तभी उसका अंगूर-विषयक ज्ञान अंगूर का सम्यक् ज्ञान कहा जा सकता है। उसे यह भी जानना जरूरी है कि अंगूर कैसे, कहां, कैसा होता या पैदा होता है । उसकी पैदावार के लिए क्या-क्या जरूरतें होती हैं, इत्यादि । यह सब पूरी तरह जान लेने और स्वयं स्वाद ले लेने के उपरान्त ही पूर्ण ज्ञान या शुद्ध ज्ञान या सम्यक् ज्ञान अंगूर के विषय का कहा जा सकता है । अन्यथा तो ज्ञान अधूरा ही कहा जाएगा। इसी प्रकार की कुछ बात आत्मा के साथ भी है। आत्मा और कर्म पुद्गल कैसे बंधते छूटते हैं इसकी स्वयं की अनुभूति जब तक नहीं होती ज्ञान श्रुत-ज्ञान ही रहेगा और 'व्यवहार' का ही भाग रहेगा--निश्चय' नहीं हो सकता। जैन सिद्धान्त का 'पुद्गल' ही वर्तमान विज्ञान का इलक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि है। चूंकि इनके प्राथमिक संघ को 'परमाणु' कहा जाता है। इससे मैंने 'पुद्गल' (इलैक्ट्रोन, प्रोटोन आदि) को 'परम-परमाणु' की संज्ञा दी है । इन परम-परमाणुओं, परमाणुओं आदि से सारा वातावरण भरा हुआ है और किसी भी जीवधारी का शरीर इन पुद्गलों से ही निर्मित है। हम जो भी खाते-पीते, स्वांस लेते आदि हैं वे सब पुद्गलों के संघ ही हैं। सारा दृश्य जगत् पुद्गल-निर्मित है। जीवधारियों में उनका शरीर भी पुद्गल निर्मित ही है। पुद्गल अजीव या अज्ञान, जड़ है। शरीर में चेतन आत्मा की विद्यमानता से ही सारा कार्य हो पाता है। दुःख-सुख की अनुभूति भी होती है। बिजली के जैन दर्शन मीमांसा ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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