Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

Previous | Next

Page 5
________________ मंगल आशीर्वाद परम पूज्य सिद्धान्तचक्रवर्ती श्वेतपिच्छाचार्य १०८ श्री विद्यानन्द जी मुनिराज आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥ - आचार्य कुन्दकुन्द 'प्रवचनसार' गाथा 3-33 अर्थ आगमहीन श्रमण आत्मा को और पर को निश्चयकर नहीं जानता है और जीव-अजीवादि पदार्थों को नहीं जानता हुआ मुनि समस्त कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है? आचार्य कुन्दकुन्द का ‘प्रवचनसार' वास्तव में एक बहुत ही महान ग्रन्थ है। इसका हम सबको गहराई से अध्ययन करना चाहिए। इस ग्रन्थराज में ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र का गम्भीर विवेचन किया गया है। (v)

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 407