Book Title: Pratima Shatak Part 04
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Pravin K Mota
Publisher: Gitarth Ganga

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Page 427
________________ 12 प्रतिभाशds पद्यांशः पृ. क्र. पद्यांशः पृ. क्र. पुवाभिमुहो० (विशेषावश्यकभा. गा. ३४०६) ८१७ माहेसरीउ (आवश्यक नि. ७७२) २०५६ पुष्पामिषस्तुति० ६७१ | मिथ्यात्वाविरति० (तत्त्वार्थ ८/१) १३२९ पूआविहिविरहाओ (श्राद्धविधि गा. ६ वृत्तौ) ११९७ | मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो (योगशास्त्र २/१३) ६५७ पूजया विपुलं (अग्निकारिकाष्टक श्लो. ३) ३४७ | मुलछेज्नं पुण (विशेषावश्यक भा. १२४९) ९२ पंचहि ठाणेहिं (स्थानाङ्ग ५/२/४२६) ___ २३९ | मूढनइयं सुयं० (आवश्यकनि. ७६२) १४८४ पंचहिं ठाणेहिं (स्थानाङ्ग ५/२/४२६) २४४ | मूलनिमेणं (सम्मतितर्क १/५) ४०९, १४७३ प्रकाशितं यथैकेन ७१७ मोक्षाध्वसेवया (अग्निकारिकाष्टक श्लो. ७) ३४९ प्रमादयोगात (तत्त्वार्थ. ७/८) १४८४ | मोक्षायैव तु घटते (तत्त्वार्थकारिका श्लो. ५) १४४४ प्रतिमाश्च विविधाः (श्राद्धविधि गा. ६ वृत्तौ) १२०१ मोत्तूण आउयं (विशेषावश्यकभा. १९३९) १३४० प्रयाणभङ्गाभावेन (योगदृष्टिसमुच्चय श्लो. २०) १४६५ मंता जोगं काउं (उत्तराध्ययन ३६/२६३) ११२ प्रवृत्तिहेतुं धर्मं (विधिविवेके) १२९६ | यः शासनस्य (द्वात्रिंशिका ६/३०) ६७९ प्रशमरसनिमग्नं | यतनातो न च (षोडशक ६/१६) ४३९ प्राणी प्राणिज्ञानं (सूत्रकृताङ्ग वृत्तौ) ४२७ | यदैवेतद्रूपं (अष्टसहस्री विवरण) १५१५ बंभीए णं लिवीए (समवायाङ्गे) ___५६ | यस्तृणमयीमपि (पूजाप्रकरणे) १०५६ ब्रह्माद्वयस्य १५२८ ये तु दानं (दानाष्टक श्लो. ७) २९२ भण्णइ एत्थ (पञ्चकल्पभाष्य गा. १५७१) ६८७ | योगः शुद्धः (प्रशमरति श्लोक-२२०) ३७७ भण्णइ जिण० (पञ्चाशक ४/४२) ७४५ | रायगिहे चलणे (भगवतीसत्रे) ५८ भवद्विइभंगो (पूजाविंशिका गा. ९) २२४ | लक्खणजुत्ता० (व्यवहारभाष्य उ. ६ गा. १८९) १२०७ भावच्चणमुग्ग० (महानिशीथ ३/३६) ५४३ | लिंगं जिणपण्णत्तं (आवश्यकनि. गा. ११३१) १२१६ भावोऽयमनेन (षोडशक ३/१२) ७११ | लिम्पतीव तमो० (बालचरित १/१५) ५२ भासा चउविह त्ति (भाषारहस्य गा. १७) |लोकोत्तरं तु निर्वाण (षोडशक ७/१५) १४५९ भिक्खु य अण्णयरं (व्यवहारसूत्र १/३३) ८२१ वत्थगन्धम् (दशवैकालिक ७/२) । ५१७ भिन्नविसयं णिसिद्धं (आवश्यकनि. १२२७) १३१२ वापीकूप० (योगदृष्टि० श्लो. ११७) भूमिप्पेहण० (पञ्चाशक ४/११) ७४१ वाबाहक्खय० (विंशिका २०/८) १५३६ मत्प्रसूतिम् (रघुवंश १/७७) ७९७ वारिदस्तृप्तिम् (मनुस्मृति) ७८४ मणसा जे उ (सूत्रकृताङ्ग १/१/२/२९) ४२८ | वासावासं पज्जोसवियाणं (स्थानाङ्ग ५/२/४१३) ४९८ मणेरिवाभिजातस्य (द्वात्रिंशिका २०/१०) ४५१|| वितिगिच्छ० (आचाराङ्ग १/५/५ सू. १६१)३५८, १५०५ मन्त्रन्यासश्च (षोडशक ७/१२) ४७१। | विनश्यन्त्यधिकं (राज्यादिदानाष्टक श्लो. ३) ५३२ महाफलं खलु (भगवतीसू. २/१) ३४ | विभज्जवायं (सूत्रकृताङ्ग १/१४) महाजयं जयइ (उत्तराध्ययन १२/४२) ४५८ | विशुद्धिश्चास्य० (अग्निकारिकाष्टक श्लो. ५) ३४८ मा मा संस्पृश १३२ | विहिसारं चिय (धर्मरत्नप्रकरण गा. ९१) १९९३ मासब्भंतरतिनि य० (बृ. कल्प.) ५१७ वेदोक्तत्वान् (ज्ञानसार २८/३) ६६७ ३५१ २९९

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