Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Vimal Prakashan Trust Ahmedabad

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Page 11
________________ ( iii ) राज ने, कायोत्सर्ग, श्रावश्यक और उसके श्रालावों में भी स्पष्ट शब्दों में बताया है । प्रतिमा-पूजन की सिद्धि और श्रेयः साधकता के लिए,. इससे अधिक प्राचीन और प्रबल प्रमाण दूसरे भाग्य से ही हो सकते हैं। प्रतिमा पूजन, यह किसी प्रज्ञानी, स्वार्थी साधु, या पुरुष की कही हुई निरर्थक क्रिया नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम ज्ञान को प्राप्त, निःस्वार्थी और शुद्ध पुरुषों ने स्व-पर-श्रय के लिए बताई गई अजोड़ और अनुपम सफल धर्मक्रिया है । इसके अनेक प्रमारण इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर देने का प्रयास किया गया है । इन्हें ध्यान पूर्वक पढ़ने वाले किसी भी समदृष्टि वाचक को, स्पष्ट हुए बिना नहीं रहे कि - प्रतिमा पूजन, यह अज्ञान या अविवेक में से उत्पन्न नहीं हुई हैं, परन्तु इसका खंडन ही घोर अज्ञान और अविवेक में से उत्पन्न हुआ है ।" 3. प्रतिमा-पूजन जैसी सर्वोच्च आत्मकल्याणकर प्रवृत्ति के लिए व्यंग कसने वाले वर्ग के दो भाग हो जाते हैं । एक प्राचीन विचारश्र ेणी का और दूसरा अर्वाचीन विचारश्र ेणी का । प्रांची विचारश्र ेणी का वर्ग प्रतिमा-पूजन में हिंसा और उसे अधर्म मानता है और प्रवीन, विश्वाशी का वर्ग प्रतिमा-पूजन में बुद्धि की जड़ता और उसे अंध परम्परा मानता है ! ये दोनों विचारश्र णियां प्रज्ञान मूलक हैं । प्रतिमा-पूजन से हिंसा नहीं, परन्तु ग्रहिस्त बढ़ती है तथा प्रतिमा पूजन से बुद्धि की जड़ता नहीं बढ़ती है, किन्तु निर्मलता बढ़ती है तथा अंथ अनुकरस्य के बजाय सर्वोत्कृष्ट ज्ञानियों के बताये ज्ञानमार्ग का अनुसरण होता है । इस सम्पूर्ण पुस्तका में प्राचीन और अर्वाचीन दोनों श्रेणी के विचारों का प्रतिमा-पूजन सम्बंधी विरोध वाला मन्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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