Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Vimal Prakashan Trust Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ पर हुए बिना नहीं रह सकता । एक ओर तो स्वभावतः अज्ञान का साम्राज्य और दूसरी ओर कुतर्कों का प्राबल्य-दोनों का मिलन होने से श्री वीतरागदेव की पवित्र मूर्ति और उसकी परमकल्याणकारी उपासना से भी अज्ञानी और सरल प्रात्माओं का मन विचलित हुए बिना न रहे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। नास्तिक से भी परमार्थ सेनास्तिक ऐसे आस्तिक द्वारा विशेष अनर्थ होता है : . मूर्ति नहीं मानने के मत की उत्पत्ति जैसे भयंकर अज्ञान में से ही हुई है उसी प्रकार मूर्ति की उपासना को एक हिंसक कर्तव्य के रूप में जानने की अथवा पहिचान करवाने की कुबुद्धि भी क्रूर मिथ्यात्व में से ही उद्भूत हुई है । सामान्य प्रात्माएं स्वतः इस मत की भयंकर अज्ञानता और क्रूर हित घातकता समझ सकने स्थिति में नहीं होती और इसीलिए ज्ञानीजनों ने इसे समझाने का भगीरथ प्रयत्न किया है। आत्मा और परलोक आदि विद्यमान और प्रमाण सिद्ध पदार्थों को नहीं मानने वाला नास्तिक जितना अनर्थ नहीं करता है, उससे भी अधिक अनर्थ आत्मा आदि को मानते हुए भी उसके प्रांशिक स्वरूप को नहीं मानने अथवा विपरीत प्रकार से मानने वाला आस्तिक करता है, इसीलिए श्री जैन दर्शन में ऐसी आत्माएँ व्यवहार से आस्तिक मानी जाने पर भी परमार्थ से नास्तिकों की श्रेणी में ही आती है। .. श्री जिनेश्वरदेव के सत्य वचनों को उनके उसी स्वरूप में ग्रहण न कर विपरीत रूप में ग्रहण करने में भी श्री जिनशासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 290