Book Title: Pratikraman aur Pratyakhyan Parasparik Sambandh Author(s): Chandmal Karnavat Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 2
________________ 228 जिनवाणी गर्हा, शुद्धि आदि को भी प्रतिक्रमण का पर्याय बताया है। प्रत्याख्यान क्या है? सामायिकादि छः आवश्यकों में प्रत्याख्यान छठा और अंतिम आवश्यक है। इसका अर्थ है- असीम इच्छाओं पर नियंत्रण करने हेतु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक कुछ व्रत, नियम या प्रतिज्ञा ग्रहण करना, प्रवचनसारोद्धारवृत्ति में कहा गया- “अविरति और असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना । मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभयोग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है । अनुयोगद्वारसूत्र में प्रत्याख्यान का नाम गुणधारण प्रयुक्त हुआ है। गुण मुख्यतः मूलगुण और उत्तरगुण दो हैं। मूलगुणों में साधु-साध्वी के ५ महाव्रत और श्रावक-श्राविका के अहिंसादि ५ अणुव्रत हैं और उत्तर गुणों में साधु-स - साध्वी के नवकारसी आदि १० पच्चक्खाण और श्रावक-श्राविका के लिए ३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत तथा १० प्रत्याख्यान हैं। उत्तराध्ययन २९ / ३७ में ९ प्रकार के प्रत्याख्यानों में कषाय का प्रत्याख्यान भी बताया है। प्रत्याख्यान पापों से सुरक्षा का एक कवच है। यह साधक को भविष्य कालीन पापों से बचाता है। 'आवश्यक निर्युक्ति' में आचार्य भद्रबाहु ने प्रत्याख्यान के लाभों की एक शृंखला दी है। प्रत्याख्यान से संयम, सयंम से आस्रव निरोध, आम्रव-निरोध से तृष्णा का अन्त, उससे उपशमभाव व उपशम भाव से चारित्रधर्म, उससे कर्म - निर्जरा, कर्म निजर्रा से केवल ज्ञान दर्शन और उससे साधक अंत में मुक्ति प्राप्त करता है। 15, 17 नवम्बर 2006 साधक को सुप्रत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान का स्वरूप समझकर इनका शुद्धिपूर्वक पूर्ण पालन करना चाहिए । प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान द्वारा पापों से निवृत्ति प्रतिक्रमण भूतकाल का एवं प्रत्याख्यान भविष्य काल का होता है। प्रतिक्रमण भूतकाल की भूलों और दोषों की शुद्धि के लिए किया जाता है, जबकि प्रत्याख्यान भविष्यकाल में दोष न करने हेतु किया जाता है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार भविष्यकाल के प्रति आ-मर्यादा के साथ अशुभ योगों से निवृत्ति और शुभ योगों में प्रवृत्ति का आख्यान होने से प्रत्याख्यान भविष्यकाल का प्रतिक्रमण है । प्रत्याख्यान ग्रहण करने से भविष्य काल में होने वाले पापों पर रोक लग जाती है, साधक अशुभयोगों से निवृत्त होकर शुभ में स्थित होता है, यही प्रतिक्रमण है जो भविष्यकाल की दृष्टि से होता है। वर्तमान में तो साधक सामायिक संवर में होता ही है, वह वर्तमान काल का प्रतिक्रमण है। इस प्रकार प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण दोनों मिलकर पापों से लौटने की क्रिया को सम्पन्न करते हैं । प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान से परिपुष्ट मूलगुणों एवं उत्तरगुणों के प्रत्याख्यान से प्रतिक्रमण का अनुष्ठान अधिक पुष्ट बनता है । मूलगुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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