Book Title: Pratikraman aur Pratyakhyan Parasparik Sambandh
Author(s): Chandmal Karnavat
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 5
________________ 15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी ही जायेंगे। विशेष कथनीय - प्रतिक्रमण जीवन में आगे बढने एवं आत्म-कल्याण हेतु आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारा प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण न होकर भाव प्रतिक्रमण हो। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रतिक्रमण के इन दोनों भेदों पर प्रकाश डाला गया है। प्रतिक्रमण करते हुए व्रतों में लगे अतिचारों का चिंतन करें उनके प्रति पश्चात्ताप करें और भविष्य में उन्हें न दुहराने का संकल्प करें तथा "तच्चित्ते तम्मणे तल्लेस्से' आदि के अनुसार एकाग्रचित्त होकर इसे संपन्न करें। ____ इसी प्रकार प्रत्याख्यान के विषय में आवश्यक दिग्दर्शन' में उपाध्यायश्री अमरमुनिजी ने प्रत्याख्यान या त्याग के द्रव्य और भाव दो भेद किए। अगर भावपूर्वक त्याग नहीं हुआ और द्रव्य का ही त्याग रहा तो वह विशेष फलदायक कैसे हो सकता है ? इन्द्रिय विषयों पर एवं कषायादि पर विजय तथा कर्मनिर्जरा के लिए ही प्रत्याख्यान काल उचित होगा। कोई भी प्रत्याख्यान भली-भाँति उसका स्वरूप समझकर किया जाय तभी वह सुप्रत्याख्यान हो सकेगा। प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण दोनों केवल आध्यात्मिक लाभ के ही कारण नहीं, वे इस लोक में भी समता, नम्रता, क्षमाभाव आदि सद्गुणों की वृद्धि होने से शान्ति और सुख प्रदायक बनते हैं। (आवश्यक सूत्र, प्रस्तावना- देवेन्द्रमुनि शास्त्री) मूलगुणों की सुरक्षार्थ उत्तर गुण हैं। उत्तरगुण न भी हों और मूलगुण हों तो धर्म, गुरु की शोभा होगी। व्यवहार में हिंसादि का त्याग होगा। इस प्रकार मूलगुणों के साथ उत्तरगुणों की शोभा हेतु प्रत्याख्यान में मूलगुणों और उत्तरगुणों को धारण किया जा सकता है। (सम्यक्त्व पराक्रम, जवाहराचार्य, पृ. 169-170) -35, अहिंसापुरी, फतहपुरा, उदयपुर (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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