Book Title: Pranshakti Kundalini evam Chakra Sadhna
Author(s): Bramhamitra Avasthi
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 14
________________ वीरन रावती अभिनन्दन वन्य शक्ति जागृत हो जाती है / फलस्वरूप साधक योगी सर्वज्ञ हो जाता, उसके लिए कुछ भी ज्ञातव्य शेष नहीं Am egrammeomamMARTAMIRECOMMADRASEEG HAIRPHITYANARRITAMILLINOKPORNUARAN -ManishikashNEmiratelinesensive हो जाता है। दोनों प्रकार की शक्तियों की दृष्टि से वह परमेश्वर के लगभग सदृश हो जाता है क्योंकि इस चक्र का तत्त्व महत्त् है और वही समस्त विश्व के तत्त्वों का मुल है, अतः उसकी धारणा से सम्पूर्ण प्रकृति उसके वश में हो जाती है / इस प्रकार इस चक्र के जागरण द्वारा अनन्त शक्ति सम्पन्न हो जाने पर साधक की रुद्रग्रन्थि का भेदन हो जाता है, जिसके बाद उसकी प्राणशक्ति (कुण्डलिनी) और मन सहस्रार चक्र में पहँच जाते हैं। इस स्थिति को परम पद कहते हैं। आज्ञा चक्र में दो दल हैं, इसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। इन दोनों दलों में हैं एवं क्षं बीजाक्षर माने जाते हैं जो क्रमशः ज्ञानशक्ति और इच्छा शक्ति के प्रतीक हैं। ॐ महत्तत्त्व का बीजाक्षर है जिसे कणिका में अंकित मानना चाहिए / ज्योतिलिंग के रूप में इसके यन्त्र की कल्पना की जाती है। अर्थात इस चक्र के जागरण हेतु आज्ञा चक्र में ज्योतिलिंग के स्वरूप में साधक ध्यान करता है। इसके बीज का वाहन नाद है जिसे दर्शन शास्त्र में शब्द ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया है। इससे पूर्व के चक्रों में क्रमशः पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वों में धारणा की गयी थी। अर्थात् क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम तत्त्वों पर प्राणशक्ति और मन को स्थिर करने rsian i indeanANAORATrendikinnoraminim उसमें धारणा सिद्ध हो जाने पर मन और प्राण स्थिर हो गये हैं ऐसा कहा जा सकता है। अतः इस चक्र में धारणा का नहीं ध्यान का अभ्यास किया जाता है, जो धारणा से उच्चतर स्थिति है। इस महत्तत्त्व में ध्यान की सिद्धि होने पर अर्थात् विश्व के मूल तत्त्व (सूक्ष्मतत्त्व) में चित्त की एकतानता (तत्र प्रत्यकतानता ध्यानम्-यो सू० 3.2) अर्थात् ध्यान के सिद्ध होने पर रुद्रग्रन्थि का भेदन हो जाता है और प्राण तथा मन सुषुम्ना महापथ के सर्वोच्च स्थान पर पहँच जाते हैं, जिसे सहस्रार चक्र, सहस्र दल कमल और परम पद कहते हैं। यह स्थल समग्र चेतना का मूल है, अतः इस स्थान में कोई तरंग नहीं है, निस्तरंग प्रशान्त अगाध समुद्र की भांति यहाँ परम शान्ति है। इस स्थिति में पहुँचने पर साधक को कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती, वह उसकी समाधि की स्थिति होती है / तात्पर्य यह है कि आज्ञा चक्र के जागृत होते ही साधक समाधि की स्थिति में पहुँच जाता है / इस स्थिति में पहुँच कर उसे कुछ करने की अपेक्षा नहीं होती। आवश्यकता होती है तल्लीनता की जिससे विक्षेप उसे न खींच सकें। यहीं योगी परम आनन्द के अनुभव में मग्न हो जाता है, लीन हो जाता है, दूसरे शब्दों में ब्रह्म की अभेदावस्था को प्राप्त कर लेता है, ब्रह्ममय हो जाता है। स्मरणीय है कि चक्रों की संख्या बताते हुए और उनके नामों का परिगणन करते समय सात चक्रों के नाम लिए जाते हैं -(1) मूलाधार, (2) स्वाधिष्ठान, (3) मणिपूर, (4) अनाहत, (5) विशुद्ध, (6) आज्ञाचक्र और (7) सहस्रारचक्र। किन्तु साधना के क्रम में केवल छह वक्री की साधना की विधि का वर्णन होता है। इसका कारण यह है कि आज्ञाचक्र के जागृत होने के बाद योगी को साधना की आवश्यकता नहीं रह जाती, अब वह साधक नहीं रहता सिद्ध हो जाता है, सिद्ध ही नहीं परम सिद्ध / उसे न किसी साधना की अपेक्षा रहती है और न विश्व के किसी भौतिक अभौतिक स्थूल अथवा सूक्ष्म पदार्थ की अपेक्षा रहती है। वह ब्रह्म से अद्वैतभाव को प्राप्त हो जाता है। यही स्थिति समस्त साधनाओं से प्राप्त होने वाली अन्तिम स्थिति है / परम सिद्ध अवस्था है। इसे ही बौद्ध परम्परा में ब्रह्मविहार शब्द से साधना की सर्वोच्च सिद्धि के रूप में स्मरण किया गया है। 00 प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चक्र-साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी / 321 ShiseDicactualdurane - 16 MARATHION: A mernationalit: T + www.jain ++%

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