Book Title: Pranshakti Kundalini evam Chakra Sadhna
Author(s): Bramhamitra Avasthi
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
View full book text
________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
इस चक्र में सोलह दल हैं, यह संख्या अब तक वर्णित चक्रों के दलों की संख्या से सर्वाधिक है । इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व वर्णित चक्रों को अपेक्षा यह सबसे बड़ा चेतना केन्द्र है । इस चक्र के सोलह दलों में क्रमशः अँ आँ इँ ई ॐ ॐ ऋ ॠ लँ लँ एँ ऐं ओं औं अं अँः बीजाक्षर अंकित किये जाते हैं तथा कर्णिका में आकाशतत्त्व का बीज हँ माना जाता है । आकाशतत्त्व का अधिष्ठान होने से इसके यन्त्र की रचना शून्य चक्र के रूप में की जाती है । इस चक्र के दलों का रंग धूम्रवर्ण माना गया है। इस चक्र के बीज का वाहन हाथी माना जाता है । पञ्च वक्त्र रुद्र इस चक्र का देवता है तथा शाकिनी उसकी शक्ति है ।
इस चक्र के जागरण से साधक की अनन्त मूलशक्तियाँ जागृत हो जाती हैं, स्वरों को बीजमन्त्र स्वीकार करते हुए इसी रहस्य की ओर संकेत किया गया है । जिस प्रकार स्वर वर्ण अन्य सभी बीजमन्त्रों के मूल में 'अवश्य विद्यमान रहते हैं, आकाश सभी तत्त्वों के अन्तर्गत व्यापक रहता है उसी प्रकार सभी प्रकार की शक्तियों और चेतनाओं के मूल में भी इस चक्र की शक्तियाँ केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित रहती हैं । काव्य-रचना अथवा वचन रचना चातुर्य, जिसकी चर्चा अन्य चक्रों के जागरण के क्रम में की गयी है, उसका मूल भी आकाश तत्त्व का विशेष क्रियाशील होना है । आकाश धारणा के सिद्ध होने पर अर्थात् इस चक्र के जागृत होने पर योगी का चित्त आकाश के समान ही पूर्ण शान्त, भावनाओं की विविध तरङ्गों के विकारों से रहित पूर्ण शान्त हो जाता है, जहाँ तक आकाश की व्यापकता है, वहाँ तक योगी की ज्ञानसीमा विस्तृत हो जाती है अर्थात् साधक सर्वज्ञता को प्राप्त कर लेता है । सर्वलोकोपकारिता योगी का स्वभाव हो जाता है । पूर्ण आरोग्य, इच्छानुसार जीवन और परम तेजस्विता उसके सहज धर्म बन जाते हैं ।
आज्ञा चक्र
आज्ञा चक्र की स्थिति विशुद्ध और सहस्रार चक्रों के मध्य दोनों भौहों (भ्र) के बीच में स्वीकार की जाती है । यह स्थान महत्तत्त्व का केन्द्र है । महत्तत्त्व प्रकृति का साक्षात् विकार है । शेष सभी तत्त्व अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, उभयेन्द्रिय मन, और पाँच महाभूत सभी इसके ही विकार हैं । इनमें अहंकार साक्षात् विकार है तथा अहंकार के विकार तन्मात्राएँ और सभी इन्द्रियाँ हैं, पाँचों महाभूत पाँच तन्मात्राओं के विकार हैं । इस प्रकार महत् भी इन सभी की प्रकृति है, नूल तत्त्व है । आचार्य कपिल ने मन को महत्तत्त्व से अभिन्न माना है [ महदाख्यमाद्यं कार्यं तन्मनः, सांख्यसूत्र १. ७१] इसका तात्पर्य है कि महत्तत्त्व का मन से अभिन्न सम्बन्ध है, फलतः इस चक्र के जागरण के लिए महत्तत्त्व पर धारणा करनी चाहिए । इस चक्र पर धारणा करने से साधक का मन पूर्ण शक्ति सम्पन्न हो जाता है । मन उभय इन्द्रिय है अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों का अधिष्ठाता है । ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का सम्पूर्ण नियमन मन के द्वारा ही होता है । यह एक ऐसा चेतना केन्द्र है जहाँ से समस्त ज्ञान चेतना एवं क्रियात्मक चेतना का समग्ररूप से संचालन होता है । इसी कारण इस चक्र (चेतना केन्द्र) में केवल दो ही दल माने गये हैं । ये दो दल (पंखुड़ियाँ) एक-एक करके ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति की चेतना के प्रतीक हैं ।
प्राणायाम मन्त्र के ‘ओम् तपः' अंश का अर्थ और उसकी भावना के साथ जप इस चक्र को (चेतना केन्द्र को) जागृत करने के लिए किया जाता है । इसके जागृत होने से सम्पूर्ण ज्ञानशक्ति और सम्पूर्ण क्रिया
३२० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
Fain Education International
www.jainelibrary.org