Book Title: Prameykamal Marttand ka Sampadan Ek Samiksha Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 2
________________ २० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं कृति है और आज भी सम्पादनके आदर्शका एक अनुपम उदाहरण है। आचार्य प्रभाचन्द्रकी यह दार्शनिक कृति संस्कन गद्यका भी उत्कृष्ट उदाहरण है। यह कृति अभी तक मलग्रन्थके रूपमें ही प्रकाशित होनेसे सामान्य पाठक इसके हार्दको समझने में कठिनाईका सामना करते थे। किन्तु यह प्रसन्नताका विषय है कि न्यायाचार्यजी द्वारा सुसम्पादित प्रस्तुत मलग्रन्थके आधार पर ही इसके प्रकाशनके लगभग चार दशक बाद विदुषी आर्यिका जिनमतो माताजी द्वारा हिन्दी अनुवाद विशेष विवेचनयुक्त भावार्थके साथ तीन भागोंमें प्रकाशित हो जानेसे जन साधारणको इस ग्रन्थका हार्द समझना तथा विविध विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानोंके पाठ्यक्रममें अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसंधानका मार्ग सुगम हो गया है। इतने कठिन ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद भी पं० महेन्द्रकुमारजी द्वारा सुसम्पादित प्रस्तुत कृतिके आधार पर ही सम्भव हो सका। हिन्दी अनुवाद सहित इन तीन खण्डोंका प्रकाशन वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला, हस्तिनापुरके माध्यमसे सन् १९७० से १९८६ के मध्य अलग-अलग श्रद्धालु दातारों द्वारा हुआ है। ग्रन्थ-परिचय आचार्य माणिक्यनन्दि प्रणीत जैनन्यायके सूत्रग्रन्थ "परीक्षामुख सूत्र" पर बारह हजार श्लोक प्रमाण "प्रमेयकमलमार्तण्ड" नामसे बृहद् दीका लिखकर आ० प्रभाचन्द्रने ग्रन्थगत मलसूत्रोंके विषयको स्पष्ट और विस्तृत विवेचित तो किया ही, अपनी अनेक मौलिक उद्भावनाओंके साथ तत्कालीन प्रचलित उन सभी भारतीय दार्शनिकों और न्यायशास्त्रियोंके पक्षों एवं चचित विषयोंको पूर्वपक्षके रूप में प्रस्तुत करके अनेकान्तमय प्रबल प्रमाणों द्वारा खण्डनात्मक अकाट्य उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हुए जैनन्यायको गौरव प्रदान किया और उसके विकासका मार्ग प्रशस्त बनाया । इसीलिए यह ग्रन्थ मात्र टीका ग्रन्थ ही न रहकर आरम्भसे ही मौलिक ग्रन्थके रूपमें भी इसकी अधिक ख्याति रही। यह ग्रन्थ अपने नामको सार्थक करते हुए प्रमेयरूपी कमलोंको उद्भासित करनेके लिए मार्तण्ड ( सूर्य ) के समान है तथा मिथ्या-अभिनिवेशरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए भी मार्तण्ड ( सूर्य ) के सदृश होनेसे भी यह ग्रन्थ अपने नामको सार्थक करता है । वस्तुतः जैसे सूर्य कमलोंको विकसित करता है, वैसे ही यह ग्रन्थ समस्त प्रमेयोंको प्रदर्शित करता है। आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि बारह ग्रन्थ प्रणीत होनेके उल्लेख मिलते हैं किन्तु इनको ख्याति मुख्यतः इन्हीं दो न्याय ग्रन्थोंके कारण ही विशेष है। इन दोनों ग्रन्थोंमें ही सम्पूर्ण भारतीय दर्शनोंकी प्रायः सभी शाखाओंकी प्रमुख मान्यताओंको उनके विविध मूलभूत प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थोके आधारपर आ० प्रभाचन्द्रने गहन अध्ययन एवं मंथन करके ही उन्हें पूर्वपक्षके रूपमें प्रस्तुत किया। प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ ही इतना सर्वाङ्ग परिपूर्ण है कि मात्र अकेले इस ग्रन्थके आधारपर ही सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय दर्शनोंको समझा जा सकता है। जबकि इस ग्रन्थका प्रमुख उद्देश्य मुख्यतः प्रमाणतत्त्वका विवेचन है। सम्पादन-कार्यकी विशेषतायें डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य द्वारा सम्पादित प्रमेयकमलमार्तण्डका प्रस्तुत संस्करण श्रेष्ठ एवं आदर्श सम्पादनकलाका एक कीर्तिमान उदाहरण है। पं० जी द्वारा सम्पादित प्रस्तुत ग्रन्थका जिसने भी अध्ययन किया, पं० जी के अगाध पाण्डित्य एवं अपूर्व श्रम तथा साहित्यसाधनाकी उसने भरपूर प्रशंसा की। सर्वाङ्गीण तुलनात्मक अध्ययनकी दिशामें इस ग्रन्थकी महत्ता तो प्रत्येक पृष्ठपर उल्लिखित भरपूर पादटिप्पणियोंके आधारसे ही सिद्ध है । जो विद्वान् इस प्रकारके सम्पादन-कार्य में गहरो रुचि रखते हैं, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4