Book Title: Prameykamal Marttand ka Sampadan Ek Samiksha Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 1
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डका सम्पादन : एक समीक्षा ___ • डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी किसी भी प्राचीन ग्रन्थका उद्धार करके उसका साङ्गोपाङ्ग सम्पादन और प्रकाशन अति दुष्कर कार्य है। किन्तु जिस विद्वान्ने विविध कठिनाइयोंके बाद भी अनेक प्राचीन दार्शनिक दुर्लभ एवं जटिल बृहद् ग्रन्थोंका सम्पादन-कार्य किया हो उसके अद्भुत वैदुष्य, प्रतिभा, श्रम-साधना और अदम्य उत्साहके विषयमें जितना लिखा जाए, कम ही होगा। ऐसे विरले ही साहित्य-साधक होते है जिन्होंने अपने अल्प जीवनकालमें ही इतने विस्तृत, विपुल एवं कठिन अनेक जैन दार्शनिक ग्रन्थोंको सुसम्पादित करके जैन साहित्यकी सेवामें अपनेको समर्पित कर दें। किन्तु डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने यही सब करके स्वयंको जैन दार्शनिकोंकी गौरवशाली परम्परामें सम्मिलित कर लिया है। आपके द्वारा सम्पादित अनेक ग्रन्थोंकी शृंखलामें प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थके सम्पादन-कार्यको समीक्षा प्रस्तुत है समृद्ध भारतीय मनीषाकी प्रत्येक परम्परामें उपलब्ध प्राचीन सूत्रग्रन्थोंपर अनेकानेक व्याख्यायें प्राप्त होती है । जैन परम्पराके आद्य संस्कृत सूत्रग्रन्थकी तरह जैनन्यायके आद्य सूत्रग्रन्थ आचार्य माणिक्यनन्दि ( आठवीं शती ) प्रणीत “परीक्षामुखसूत्र' पर भी अनेक टीकायें लिखी गई । किन्तु इन सभी टीकाओंकी यह एक अन्यतम विशेषता है कि ये सभी अपने आपमें स्वतंत्र ग्रन्थ प्रतीत होते हैं। इन सब टीकाओंके नाम भी अलग-अलग हैं। इनमें से कुछ तो प्रकाशित होनेके कारण प्रसिद्ध हैं तो कुछ टीकाग्रन्थ अब तक इसीलिए प्रसिद्ध नहीं हो सके क्योंकि वे अभी तक अप्रकाशित हैं। सर्वप्रथम इन सबका उल्लेख आवश्यक है। प्रकाशित टीका-ग्रन्थ इनके अन्तर्गत (१) आचार्य प्रभाचंद्र (११वीं शती) विरचित प्रमेयकमलमार्तण्ड अपरनाम परीक्षामुखालङ्कार, (२) आचार्य लघु अनंतवीर्य ( १२वीं शतीका पूर्वार्द्ध ) विरचित प्रमेयरत्नमाला ( चौखम्बाविद्याभवन, वाराणसी द्वारा सन् १९६४ में प्रकाशित), (३) भट्टारक अभिनव चारुकीति (१९वीं शती) द्वारा प्रणीत प्रमेयरत्नमालालंकार (मैसूर युनिवर्सिटी द्वारा सन् १९४८ में प्रकाशित ) तथा शान्ति वर्णी विरचित प्रमेयकण्ठिका ( भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ) प्रमुख है। अप्रकाशित टीका-ग्रन्थ (१) भट्टारक अजितसेन ( वि० सं० १९८०) प्रणीत न्यायमणिदीपिका, (२) विजयचन्द्र विरचित प्रमेयरत्नमाला अर्थप्रकाशिका, (३) पं० जयचन्दजी छावडा (वि० सं० १९वीं शती ) प्रणीत प्रमेयरत्नमाला-परीक्षामुख भाषा वचनिका प्रमुख हैं। इनमें से प्रायः सभी प्रकाशित-अप्रकाशित टीकाग्रन्थोंकी हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ आरा ( बिहार ) के सुविख्यात जैन सिद्धान्त भवनमें सुरक्षित हैं । प्रस्तुत समीक्ष्य ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्डका सर्वप्रथम प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे पं० बंशीधर जी शास्त्री, सोलापुरके सम्पादकत्वमें हुआ था। इसके बाद यहींसे सन् १९४१ में द्वितीय संस्करणके रूपमें मलग्रन्थ अनेक टिप्पणियों एवं ८३ पृष्ठीय विस्तृत सम्पादकीय वक्तव्यमें विविध दार्शनिकों एवं उनकी कृतियोंसे तुलनात्मक विवेचन, बृहद् प्रस्तावना और लगभग पचास पृष्ठीय अनेक परिशिष्टोंसे युक्त सांगोपांग प्रकाशन डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यके सम्पादकत्वमें हुआ। यह उस समयके प्रकाशनोंमें सम्पादित आदर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4