Book Title: Prakrit tatha Ardhamagadhi me Antar aur Aikya Author(s): A S Fiske Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 4
________________ प्राकृत तथा अर्धमागधी में अंतर तथा ऐक्य 45 बरनेट का मत यह है कि अर्धमागधी विशिष्ट शब्दों से युक्त होने से तान्त्रिक भाषा है अत: रचना क्लिष्ट लगती है। नूतनता का अभाव है। अन्य प्राकृत भाषा-प्रेमी विद्वानों का विचार है-अर्धमागधी भाषा आसान, समझने के लिए अच्छी है / नायाधम्मकहाओ, उत्तराज्झयण की भाषा सुबोध है। ___'प्राकृत भाषा' यह शब्दप्रयोग अर्धमागधी तथा अन्य भाषाओं के लिए भी किया जाता है। अन्यान्य व्याकरणकारों ने किसी-न-किसी रूप में महाराष्ट्री भाषा को महत्त्व दिया है। संस्कृत भाषा का अपभ्रष्ट रूप जो भी भाषा या रूप प्राप्त होगा उसे प्राकृत माना गया है। पाली और अर्धमागधी भाषा को पहले-पहल प्राकृत माना गया / सूक्ष्मता से देखा जाय तो अर्धमागधी भाषा का रूप अलग ही है। आर्षभाषा और अर्धमागधी भाषा इन दोनों में भेद नहीं है, यह डॉ. जेकोबी ने सप्रमाण सिद्ध किया है। जैन सूत्रों की भाषा अर्धमागधी है तथा परवर्ती काल में महाराष्ट्री की विशेषताओं से युक्त होने से जैन महाराष्ट्री कही जा सकती है। पंडित बेचरदास जी ने अर्धमागधी भाषा को महाराष्ट्री सिद्ध करने की विफल चेष्टा की है / प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ है प्रादेशिक कथ्यभाषा लोकभाषा। जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा नाट्यशास्त्र या प्राकृत व्याकरणों की अर्धमागधी से समान न होने के कारण महाराष्ट्री न कही जाकर अर्धमागधी ही कही जा सकती है। भरत ने जिन सात भाषाओं का उल्लेख किया है, उसमें अर्धमागधी भी है। नाटकों में प्रयुक्त अर्धमागधी तथा जैन सूत्रों की अर्धमागधी में समानता की अपेक्षा भेद ही दिखाई देता है / डॉ० होन लि ने जैन अर्धमागधी को ही आर्षप्राकृत कहकर इसी को परवर्ती काल में उत्पन्न अन्य भाषाओं का मूल माना है। हेमचन्द्र ने एक ही भाषा के प्राचीन रूप को आर्ष प्राकृत और अर्वाचीन रूप को महाराष्ट्री मानते हुए आर्ष प्राकृत को महाराष्ट्री का मूल स्वीकार किया है। महाराष्ट्री में य श्रुति का नियम हम देखते हैं / अर्धमागधी में प्रायः उसी नियम से सम्बन्धित व्यंजनों के लिए अन्यान्य व्यंजनों का प्रयोग किया जाता है। महाराष्ट्री की तरह लोप भी दिखाई देता है। गद्य में भी अनेक स्थलों में समास के उत्तर शब्द के पहले 'म्' आगम होता है। महाराष्ट्री के पद्य में पादपूर्ति के लिए ही कहीं-कहीं 'म्' आगम देखा जाता है, गद्य में नहीं। अर्धमागधी में ऐसे बहुत से शब्द हैं, जिनका प्रयोग महाराष्ट्री में उपलब्ध नहीं होता जैसे-बक्क, विउस आदि / ऐसे शब्दों की संख्या भी बहुत बड़ी है जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भिन्न प्रकार के होते हैं; जैसे—आहरण -उआहरण, दोच्च-दुइअ, पुब्बि-पुव्वं / महाराष्ट्री में सप्तमी विभक्ति में 'म्मि', तृतीया एकवचन में 'एण' प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है / महाराष्ट्री में भूतकाल का प्रयोग लुप्त हो गया है। महाराष्ट्री और अर्धमागधी में सूक्ष्म भेद भी है / अर्धमागधी भाषा की अन्य विशेषताएं पूर्व में स्पष्ट की हैं। उन विशेषताओं से भी महाराष्ट्री से अर्धमागधी भाषा अलग है, यह सिद्ध होता है। भाषा परिवर्तनशील है / अर्धमागधी भाषा का रूप पहले वैशिष्ट्यपूर्ण था, बाद में उसे परिवर्तित होना पड़ा / प्राकृत शब्द से सम्बन्धित जो अन्य भाषाएँ हैं उनका तथा अर्धमागधी का सम्बन्ध माता और पुत्री जैसा माना जाय तो गलत नहीं होगा। वैदिक कालीन बोली-भाषा का रूप विशेष है। उससे अर्धमागधी भाषा का निर्माण हुआ। किसी मात्रा में अर्धमागधी खास वैशिष्ट्यपूर्ण भाषा है, यह मानना पड़ेगा। सन्दर्भ ग्रन्थ (1) भाषाविज्ञान-डॉ० भोलानाथ तिवारी (2) प्राकृत साहित्य का इतिहास-डॉ० जैन (3) पाइयसद्दमहाण्णओ-पं० शेठ (CADA सर DDA namaAJANAJAamadhuriAARAMATIOTADADAINIK आचार्यप्रभा आचार्यप्रवचआभार श्रीआनन्द अथ श्रीआनन्दकन्ध५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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