Book Title: Prakrit tatha Apbhramsa Shodh me Karya ki Dishaye Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 2
________________ का विशेष महत्त्व प्रतिपादित कर १८५८ ई० में धनेश्वरसूरि कृत 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' का सम्पादन कर विस्तृत भूमिका सहित प्रथम बार लिपजिग ( जर्मनी ) से प्रकाशित कराया । श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ 'भगवतीसूत्र' जो शोध कार्य वेबरने किया, वह चिरस्मरणीय माना जाता है । यह ग्रन्थ बलिनकी बिसेन्चाफेन (Wissenchaften ) अकादमीसे १८६६-६७ ई० में मुद्रित हुआ था । वेबरने जैनोंके धार्मिक साहित्यके विषय में विस्तारसे लिखा था, जिसका अंगरेजी अनुवाद - स्मिथने प्रकाशित किया था । विण्डिश ने अपने विश्वकोश (Encyclopedia of Indo-Aryan Research) में तत्सम्बन्धी विस्तृत विवरण दिया है । इस प्रकार जैन विद्याओंके अध्ययनका सूत्रपात करनेवाला तथा शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंको निर्दिष्ट करनेवाला विश्वका सर्वप्रथम अध्ययन केन्द्र जर्मन में विशेष रूपसे बर्लिन रहा है । होएफर, लास्सन, स्पीगल, फेडरिक हेग, रिचर्ड पिशेल, बेवर, ई० ल्युमन, डॉ० हर्मन जेकोबी, डब्ल्यु० ह्विटमन, वाल्टर शूब्रिंग, लुडविग ऑल्सडोर्फ, नार्मन ब्राउन, क्लास ब्रुहन, गुस्तेव रॉथ और डब्ल्यु० बी० बोल्ले इत्यादि जर्मन विद्वान् हैं । प्राच्यविद्याओंकी भाँति जैनविद्याओंका भी दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्ययन केन्द्र फ्रान्स था । फ्रांसीसी विद्वानोंमें सर्वप्रथम उल्लेखनीय हैं—युरिनाट । उनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'एसे डि बिब्लियाग्राफि जैन' पेरिस से १९०६ में प्रकाशित हुआ । इसमें विभिन्न जैन विषयोंसे सम्बन्धित ८५२ प्रकाशनोंके सन्दर्भ निहित हैं । 'जैनोंका धर्म' (Religion Jains) पुस्तक उनकी पुस्तकोंमें सर्वाधिक चर्चित रही । यथार्थ में फ्रांसीसी विद्वान् विशेषकर ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक विषयोंपर शोध व अनुसन्धान कार्य करते रहे। उन्हों इस दिशामें जो महत्त्वपूर्ण कार्य किए, वे आज भी उल्लेखनीय हैं । ग्युरिनाटने जैन अभिलेखोंके ऐतिहासिक महत्त्व पर विशेष रूपसे प्रकाश डाला है । उन्होंने जैन ग्रन्थ सूची- निर्माणके साथ ही उनपर टिप्पण तथा संग्रहों का भी विवरण प्रस्तुत किया था । वास्तवमें साहित्यिक तथा ऐतिहासिक अनुसन्धानमें ग्रन्थ- सूचियों का विशेष महत्त्व है । यद्यपि १८९७ ई० में जर्मन विद्वान् अर्नेस्ट ल्युमनने 'ए लिस्ट ऑव द मैन्युस्क्रिप्ट इन द लायब्र ेरी एट स्ट्रासबर्ग", वियेना ओरियन्टल जर्नल, जिल्द ११, पृ० २७९ में दौ सौ हस्तलिखित दिगम्बर जैन ग्रन्थोंका परिचय दिया था, किन्तु ग्युरिनाटके पश्चात् इस दिशा में क्लाट ( Klatt) ने महान् कार्य किया था । उन्होंने जैन ग्रन्थोकी लगभग ११००-१२०० पृष्ठोंमें मुद्रित होने योग्य अनुक्र णिका तैयार की थी, किन्तु दुर्भाग्यसे उस कार्यके पूर्ण होनेके पूर्व ही उनका निधन हो गया । बेवर और अर्नेस्ट ल्युमनने 'इण्डियन एन्टिक्वेरी' में उस बृहत् संकलनके लगभग ५५ पृष्ठ नमूने के रूपमें मुद्रित कराये थे । भारतवर्ष में इस प्रकारका कार्य सर्वप्रथम बंगालकी एशियाटिक सोसायटीके माध्यम से प्रकाशमें आया । १८७७ ई० राजेन्द्रलाल मित्रने "ए डिस्क्रिप्टिव केटलाग ऑव संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द लाइब्रेरी ऑव द एशियाटिक सोसायटी ऑव बेंगाल" कलकत्तासे प्रकाशित किया था, जिसमें कुछ प्राकृत तथा अपभ्रंश ग्रन्थों के नाम भी मिलते हैं । मुख्य रूपसे इस महत्त्वपूर्ण कार्यका प्रारम्भ इस देशमें भण्डारकरके प्रकाशित " लिस्ट ऑव संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन प्राइवेट लाइब्रेरीज इन द बाम्बे प्रेसीडेन्डी" ग्रन्थसे माना जाता है । इसी श्रृंखला में सुपार्श्वदास गुप्त द्वारा सम्पादित " ए कैटलाग ऑव संस्कृत, प्राकृत एण्ड हिन्दी वर्क्स इन १. 'द कन्ट्रिब्युशन ऑव फ्रेन्च एण्ड जर्मन स्कॉलर्स टू जैन स्टडीज़", आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ, कलकत्ता, १९६१, पृ० १६६ । २. गोपालनारायण बहुरा " जैनवाङ्मयके योरपीय संशोधक", पृ० ७४७-४८ मुनिश्री हजारीमल स्मृति-प्रन्थ । Jain Education International - ४९२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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