Book Title: Prakrit aur Apbhramsa Jain Sahitya me Krishna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 10
________________ १०६ देवकी के गृह पर दो-दो के समूह में भिक्षार्थ आते हैं। उनके समरूप और समवयस्क होने के कारण देवकी को यह भ्रम हो जाता है कि वे ही मुनि बारबार भिक्षा के लिए आ रहे हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण किसी भी घर में भिक्षार्थ दूसरीबार प्रवेश नहीं करता। अतः वह तीसरे समूह में आये मुनियों से अन्त में यह बात पूछ ही लेती हैं कि क्या द्वारिका नगरी में मुनियों को आहार उपलब्ध होने में कठिनाई हो रही है जिसके कारण आपको बार-बार मेरे द्वार पर आना पड़ रहा है। मुनि वस्तुस्थिति को स्पष्ट करते हैं कि हम छहो भाई एक सरीखे हैं और इसी कारण आपको ऐसा भ्रम हो गया है। देवकी को अपनी भविष्यवाणी का स्मरण होता है कि मुझे एक सरीखे आठ पुत्रों की भविष्यवाणी की गई थी, किन्तु मेरी अपेक्षा यह सुलसा ही भाग्यवान है। वह अपनी इस मनोव्यथा के स्पष्टीकरण के लिए अरिष्टनेमि के पास जाती है और अरिष्टनेमि उसे बताते हैं कि ये छहो भाई वस्तुतः तुम्हारे ही पुत्र हैं। सुलसा ने तो इनका पालन-पोषण ही मात्र किया है। देवकी वापस लौटकर अत्यन्त शोकाकुल होती है और विचार करती है कि मैने सात पुत्रों को जन्म दिया किन्तु उनमें से किसी की भी बालक्रीड़ा का अनुभव नहीं कर सकी, क्योंकि छ: सुलसा के द्वारा और एक नन्द और यशोदा के द्वारा पालित पोषित किये गए। देवकी यह विचार कर ही रही थी कि उसी समय श्रीकृष्ण माता के चरण वन्दन हेतु आते हैं और माता की चिन्ता का कारण पूछते हैं। देवकी सारी वस्तुस्थिति को स्पष्ट करती है। श्रीकृष्ण अपनी माता के दुःख को दूर करने के लिये तथा अपने एक और सहोदर भाई उत्पन्न होने के लिए पौषधशाला में जाकर तीन दिन का उपवास कर देव का आराधन करते हैं । देव प्रसन्न होकर कहता है कि निश्चय ही तुम्हें एक छोटा भाई प्राप्त होगा, किन्तु अल्पवय में ही वह दीक्षित हो जाएगा। कालान्तर में देवकी को पुत्र प्रसव होता है। श्रीकृष्ण अपने लघुभ्राता युवावस्था प्राप्त होते देखकर सोमिल ब्राह्मण की कन्या सोमा से उसके विवाह का निर्णय करते हैं। दूसरी ओर द्वारिका के बाहर उद्यान में अरिष्टनेमि का आगमन होता है। अरिष्टनेमि के उपदेशों को सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो जाता है। माता-पिता और भाई के सांसारिक भोग भोगने के लिये अत्यन्त आग्रह के बाद भी गजसुकुमाल दीक्षित होने का निर्णय लेते हैं। श्रीकृष्ण उनका दीक्षा महोत्सव करते हैं। गजसुकुमाल दीक्षित होने के दिन ही भिक्षु प्रतिमा अंगीकार कर लेते हैं और महाकाल श्मशान में ध्यानमग्न खड़े हो जाते हैं। उधर से गजसुकुमाल का भावी श्वसुर सोमिल ब्राह्मण निकलता है, गजसुकुमाल को मुण्डित श्रमण देखकर कुपित होता है। उनके सिर पर मिट्टी की पाल बनाकर धधकते अंगारे रख देता है। गजसुकुमाल ध्यान से विचलित न होते हुए उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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