Book Title: Prakrit Apbhramsa Pado ka Mulyankan Author(s): Rajaram Jain Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ आचार्म आचार्यप्रवर अभिनित श्रीआवन्द अन् श्रीआनन्दप्रसन्न Mu r timex . ...." ---- ६४ प्राकृत भाषा और साहित्य ध्वनि आती है कि "एक तालाब के जल में बैठी हुई हँसी अपनी प्रियसखी के विरह में रुदन कर रही है।" कवि ने प्रारम्भ से ही विरह का वातावरण प्रस्तुत करने के हेतु प्रतीक रूप में हंसी को प्रस्तुत किया है। हंसी अपनी सखी के वियोग में अनमनी हो जाती है। दूसरी ओर सूर्य की रश्मियों के स्पर्श से सरोवर के कमल भी विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार एक ही पद्य में कवि ने दो दृश्य हमारे सम्मुख प्रस्तुत किये हैं । एक ओर हंसी की विमनस्कता और दूसरी ओर सूर्य करस्पर्श से कमल का विकास । ये दोनों ही यहाँ प्रतीक हैं । हंसी की विमनस्कता उर्वशी के वियोग का संकेत उपस्थित करती है और कमल का विकास पुरुरवा एवं उर्वशी के पुनर्मिलन का संकेत देता है । महाकवि ने व्यञ्जना द्वारा इन दोनों तथ्यों का समावेश बड़ी ही कुशलता से किया है। प्रासाङ्गिक गाथा निम्न प्रकार है : पिअसहिविओअविमणा सहि हंसी वाउला समुल्लवइ । सूरकरफंसविअसिअ तामरसे सरवरुसंगे ॥---विक्रमो० ४।१ द्वितीय पद्य में पून: कवि हमें एक संकेत देता है । वह दो हंसियों को सखी के वियोग में आँसू बहाते हुए प्रस्तुत करता है। यहाँ ये दोनों हसियां उर्वशी की सखियां चित्रलेखा एवं सहजन्या की प्रतीक हैं। हंसियों का व्याकुल होना तथा रुदन करना इस बात की ओर इङ्गित करता है कि शीघ्र ही उर्वशी का वियोग होने वाला है और ये दोनों सखियां उर्वशी के वियोग से प्रताड़ित होने के कारण ही विलाप कर रही हैं । यद्यपि द्वितीय एवं तृतीय पद्य प्रायः समान हैं किन्तु इनके द्वारा कवि ने जिस काव्य वातावरण की मधुरिमा को प्रस्तुत किया है, वह अत्यन्त महनीय है। समस्त कथावस्तु व्यञ्जना के रूप में समक्ष आ जाती है और दर्शक एवं पाठकों को नेपथ्य की ध्वनि से ही नाटकीय वस्तु का परिज्ञान हो जाता है । वातावरण का सौरभ अपनी तीव्रता से मन को उल्लसित करने लगता है। महाकवि कालिदास नेपथ्य में ही प्रतीकात्मक उक्त वातावरण का सृजन करते हैं : सहअरि दुक्खालिद्ध सरवर अम्मि सिणिद्ध। वाहोवग्गिअणअणअं तम्मइ हंसी जुअलअं॥-वही ४।२ प्राकृत पद्य एवं गद्य में वर्णित वातावरण से ऐसा अनुमान होता है कि पुररवा शयन कर रहा है। सर्य की स्वणिम रश्मियां वातायन से झांकती हई उसकी शैया पर पड़ती हैं और वह स्वप्न में ही उर्वशी के वियोग का अनुभव करता हुआ उसे प्राप्त करने की चेष्टा करता है। सखी सहजन्या के कथन से एवं उसकी पुष्टि में लिखे गये प्राकृत गद्य से उक्त तथ्य स्पष्ट हो जाता है । सहजन्या कहती है :- "सहि ण क्ख तारिसा आकिदिविसेसा चिरं दुक्खभाइणो होन्ति । ता अवस्सं किपि अणुग्गहणिमित्त भूवोवि समाअम कारणं हविस्सदि (प्राचीदिशं विलोक्य) ता एहि । उदअमुहस्स भअवदो सुज्जस्स उवट्ठाणं करेम्ह ।" (वही, चतुर्थ अंक, तृतीय पद्यान्तर प्रयुक्त गद्य खण्ड) स्पष्ट है कि दुःख या वियोग का समय सर्वदा एक जैसा नहीं रहता । वियोग के पश्चात् संयोग का अवसर आता ही है । अत: सखियां सूर्य प्रार्थना के लिये उपक्रम करती हैं। इस सन्दर्भ में महाकवि ने पुरुरवा को नगाधिराज के रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ यह नगाधिराज वास्तव में राजा के जीवन की छाया है। राजा को स्वप्न में प्रिया का हरण दिखाई देता है और आँखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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