Book Title: Prakrit Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ प्रकाशकीय प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा-परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है । वैदिककाल से ही यह लोक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है। इसका प्रकाशितअप्रकाशित एवं लुप्त साहित्य इसकी गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है। भारतीय लोक-जीवन के बहुआयामी पक्ष, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परम्पराएं प्राकृत साहित्य में निहित हैं । महावीर-युग और उसके बाद विभिन्न प्राकृतों का विकास हुआ, जिनमें से तीन प्रकार की प्राकृतों के नाम साहित्य क्षेत्र में गौरव के साथ लिये जाते हैं । वे हैं-अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री । जैन आगम साहित्य एवं काव्य-साहित्य इन्हीं तीन प्राकृतों में गुम्फित है । महावीर की दार्शनिक-आध्यात्मिक परम्परा अर्धमागधी एवं शौरसेनी प्राकृत में रचित है और काव्यों की भाषा सामान्यतः महाराष्ट्री कही गई है। इन्हीं तीनों प्राकृतों का भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान है । अतः इनका सीखना-सीखाना बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रख कर 'प्राकृत रचना सौरभ' की रचना की गई थी। इसी क्रम में 'प्राकृत अभ्यास सौरभ' प्रकाशित है। अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर द्वारा मुख्यतः पत्राचार के माध्यम से प्राकृत का अव्यापन किया जाता है। 'प्राकृत रचना सौरम' पर आधारित अभ्यास हल करने के लिए अध्ययनाथियों को भेजे जाते हैं। इस तरह से अध्ययनार्थी क्रम से प्राकृत व्याकरण रचना का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। किन्तु अभ्यासों को भेजने में बहुत समय खर्च हो जाता है और अध्ययनार्थियों को व्याकरण-रचना के अभ्यास के लिए कम समय मिल पाता है। अतः (1) इस कठिनाई को दूर करने के लिए सभी अभ्यासों को एक पुस्तक का रूप देकर 'प्राकृत अभ्यास सौरभ' पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। यह पुस्तक सभी अध्ययनार्थियों को प्रारम्भ से ही भेज दी जायेगी, और अध्ययनार्थी इन अभ्यासों को निर्दिष्ट योजनानुसार हल करके भेजते रहेंगे । जो समय अभ्यासों को भेजने में लग जाता था, वह प्राकृत भाषा को सीखने में लग सकेगा। (2) दूसरी कठिनाई और अनुभव की गई-कई विश्वविद्यालय प्राकृत भाषा सिखाने का कार्य प्रारम्भ करना चाहते हैं । उन विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' के पाठ्यक्रम में प्रवेश लेना सुविधाजनक नहीं होता है। वे विश्वविद्यालय इस पुस्तक को पाठ्यक्रम में लगाकर अध्यापन का कार्य अपने ही स्थान पर कर सकते हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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