Book Title: Prachin Lekh Sangraha Part 1
Author(s): Vijaydharmsuri, Vidyavijay
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 12
________________ जगत्पूज्य-श्री विजयधर्मसूरिभ्यो नमः प्रस्तावना. इतिहासनो विषय जेटलो कठिन छे, तेटलोन आवश्यकीय छे. कोई पण देश, जाति के समाजनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, भाषा, व्यवहार, रीतरिवान विगेरेनुं ज्ञान इतिहासथीन थई शके छे, आवो शृंखलाबद्ध इतिहास तो त्यारेज लखी शकाय के ज्यारे पहेलां तेनी सामग्री एकठी करवामां आवे. सामग्री विना-साधन विना साध्य नथी साधी शकातुं. परन्तु इतिहासनी सामग्रीने भेगी करवी, ए शुं स्हेलु काम छे ? भारतवर्षनो-खास करीने जैनसमाजनो साचो इतिहास तो आजे धूळना ढगलाओमां, इंट-पत्थरनी दिवालोमां अने कीडाओना खाद्य एवा जर्नरित थयेला कागळोनां पृष्ठोमां समाएलो छे. आमाथी साचा इतिहासने तारवी काढवो एटले शुं ? संक्षेपमां कहीए तो इति. हासनी सामग्री एकठी करवी, एटले धुळधोयानो धंधो करवो. परन्तु आ धंधो करेज छूटको छे. भले सवा खांडीनी महेनतना परिणामे छटांक पण साचुं तत्त्व नीकळे. ए तत्त्व काढेज छूटको छे. एवा छूटा छूटा प्रयत्नोथी छटांक छटांक करतां घणुं तत्त्व भेगुं थई शकशे. अने एज संग्रहित कराएलं तत्त्व जैनधर्म अने जैनजातितुं मुख उज्ज्वल करशे. एटलुन नहिं परन्तु भारतवर्षनी प्राचीन संस्कृतिमां म्होटो प्रकाश पाडशे, कारण के, मले आजे जैनसमाज, भारतवर्षमां आटामां लूण बराबरनी हस्ती धरावती होय; परन्तु ए तो कोईपण इतिहासज्ञथी हवे अजाण्युं नथीन रह्यु के-भारतवर्षनो इतिहास, ए जैन इतिहासना अभावमां अपूर्णज रहेवानो. कोई पण भारतीय इतिहास लेखकने, जैन

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