Book Title: Prachin Jainacharya aur Ras Siddhant
Author(s): Anand Prakash Dixit
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 5
________________ 622 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठम खण्ड 5 नानार्थ शब्दलौल्येन पराउचो ये रसामृतात् / विद्वांसस्ते कवीन्द्राणामर्हन्ति न पुनः कथाम् // 61 ना० द०॥ 6 श्लेषालंकारभाजोऽपि रसानिस्यन्दकर्कशाः / दुभंगा इव कामिन्यः प्रीणन्ति न मनो गिरः // 71 ना० द०॥ साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहप्रन्थिले तके वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती॥ शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाकुरैरास्तृता / भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् / / रस गंगाधर, श्लोक 6. & मिलाइये, अभिनव भारती, पृ० 267 तथा हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० 305 / 10 गद्ध स्थायी लौल्यः / आर्द्रता स्थायी स्नेहः। आसक्तिस्थायि व्यसनम् / अरतिस्थायि दुःखम् / सन्तोषस्थायि सुखमित्यादि। -हिना०व०पृ० 306 / 11 केचिदेषां पूर्वेष्वन्तर्भावमाहुरिति / -हि० ना०व०, पृ० 306 / 12 आर्द्रतास्थायिकः स्नेहो रस इति स्वसत् / स्नेहो ह्यभिषङ्गः। स च सर्वो रत्युत्साहादावेव पर्यवस्यति / तथाहि -बालस्य मातापित्रादी स्नेहो भये मिश्रान्तः। यूनोमित्रजेन रतौ। लक्ष्मणादी भ्रातरि स्नेहो धर्ममय एव / एवं वृद्धस्य पुत्रादाविति द्रष्टव्यम् / एषैव गर्द्ध स्थायिकस्य लोल्यरसस्य प्रत्याख्याने सरणिमन्तव्या। हासे वा रतौ वान्यत्र पर्यवसानात् / एवं भक्तावपि वाच्यमिति / -अभि० भा० पृ० 341 / 13 मिलाइये-पुमर्थोपयोगित्वेन रञ्जनाधिक्येन वा इयतामेवोपदेश्यत्वात् / तेन रसान्तरसंभवेऽपि चार्ष प्रसिद्ध या संख्यानियम इति यदन्यैरुक्तं तत्प्रत्युक्तम् / -अभि० भा०, पृ० 341 / एते शृङ्गारादयो नवैव रसा रञ्जनाविशेषेण पुरुषार्थोपयोगाधिक्येन च सद्भिः पूर्वाचार्यरुपदिष्टाः सम्भवन्ति त्वपरेऽपि / -हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० 306 / 14 पृ० 320-321 / 15 एकाङ्गि रसमन्याङ्गमद्भुतान्तं रसोमिभिः / अलङ्घितमलङ्कार-कथाङ्ग रगलद्रसम् / / -ना० 30, प्रथम विवेक, का० 15, सूत्र 12 / 16 नाटकं हि सर्वरसं, केवलमेको अंगी, तदपरे गौणाः। अद्भुत एव रसो अन्ते निर्वहणे यत्र / यतः शृगार-वीर-रौद्रे: स्त्रीरत्न-पृथ्वीलाम-शत्रुक्षयसम्पत्तिः / करुण-भयानक-वी मत्सः तन्निवृत्तिः। इति इयता क्रमेण लोकोत्तरासम्भाव्यफल प्राप्तो भवितव्यमत्त अद्भुतेनैव / अपि च नाटकस्यासाधारणवस्तुलाभ: फलत्वेन यदि न कल्प्यते तदानीं क्रियायाः फलमात्र किञ्चिदस्त्येवेति किं तत्रोपायव्युत्पादनक्लेशेन / -ना०२० (हिन्दी), पृ० 37 / 17 चिन्तामणि, भाग 1, पृ० 317 -0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-3 ४-०-पूष्कर संस्म रण-6--0--0--0--0--0-0-0------------------------- गरम का नुकसान होता है घोड़नदी वर्षावास में आपश्री को गैस की शिकायत थी, एक अनुभवी वैद्य ने / बताया कि दूध में जरा निंबू का रस डाल देवें तो दूध तत्काल फट जाता है / आपने दूध में जरा सा निंबू का रस डाला, किन्तु दूध फटा नहीं, आपने कहा-दूध क्यों नहीं फटा ? मैंने कहा--गुरुदेव ! जो दूध गरम होता है वह जल्दी फटता है / ठण्डे दूध को फटने में विलम्ब लगता है / आपश्री ने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाते हुए कहा / -जो गरम होता है उसका नुकसान जल्दी होता है और जो ठण्डा है उसका नुकसान दूसरा नहीं कर पाता / अत: जीवन में शांति आवश्यक है। 0-0----------------------------------------------------- . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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