Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१८
श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
प्राचीन जैनाचार्य और रस-सिद्धान्त र
डा० आनन्दप्रकाश दीक्षित प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, हिन्दी विभाग पुणे विद्यापीठ, गणेशखण्ड, पुणे
रामचन्द्र तथा गुवि और नाट्यशासाहित्य के दो महीना उनकी स्वत
काव्यशास्त्रीय लेखन के प्रसङ्ग में जैन ग्रन्थकारों के बीच ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी ईसवी के हेमचन्द्र सूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र तथा गुणचन्द्र का नाम आदर के साथ लिया जाता है । हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के शास्त्रकर्ता थे और रामचन्द्र एक साथ नाटककार, कवि और नाट्यशास्त्रकर्ता। हेमचन्द्र का 'काव्यानुशासन' और रामचन्द्र तथा उनके सहपाठी गुणचन्द्र का 'नाट्यदर्पण', संस्कृत काव्यशास्त्र-साहित्य के दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। यद्यपि हेमचन्द्र ने 'काव्यानुशासन' में अधिकांशतः अपनी संग्राहक वृत्ति का ही परिचय दिया है, तथापि यत्र-तत्र उनकी स्वतन्त्र मेधा का प्रकाश भी दिखाई पड़ता है। काव्य-प्रयोजन हो या काव्य-लक्षण अथवा अलंकार-विवेचन, वे अपने पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट के विरोध में जा खड़े होते हैं। रस-प्रसंग में भी वे किसी स्वतन्त्र पथ के पथिक तो नहीं दिखाई देते, किन्तु विशदतया उस सिद्धान्त की प्रस्तुति में सक्षम और अभिनवगुप्त के आनन्दवादी दृष्टिकोण के समर्थक अवश्य दिखाई देते हैं।
इसके सर्वथा विपरीत उनके शिष्य रामचन्द्र गुणचन्द्र अपने 'नाट्यदर्पण' ग्रन्थ में न केवल अपने समकालिक धनञ्जय से अपना मतभेद व्यक्त करते हैं, बल्कि रस के विवेचन में वे आनन्दवादी पक्ष को अस्वीकार करते हुए अभिनवगुप्त के मत से भिन्न अपने मौलिक मत की स्थापना करते हैं और इस तरह स्वयं अपने गुरु हेमचन्द्रसूरि के विरोध में जा खड़े होते हैं। रस की आनन्दवादी व्याख्या के विरुद्ध वे नवरसों में से पांच को सुखात्मक और शेष चार को दुःखात्मक मानते हैं। उनके इस मत ने काव्यशास्त्रियों को पर्याप्त विचलित किया है। रस-विचारकों के बीच उनकी प्रसिद्धि भी विशेषतः इसी धारणा के कारण हुई है। किन्तु रस-प्रसङ्ग में उनकी अपनी धारणा मात्र इतनी ही हो, ऐसा नहीं है । वे काव्य में रस-अलंकार की अवस्थिति, रस-क्रम, नवीन रस-कल्पना, रस के मूलतत्त्व आदि इतर विषयों के सम्बन्ध में भी अपना मत रखते हैं। रस को शब्दार्थ-शरीररूप काव्य में प्राणतत्त्व की तरह स्वीकार करते हुए' भी वे कथा और मुक्तक में अलंकार-चमत्कार और नाटक तथा प्रबन्ध काव्य में रस की सिद्धि स्वीकार करते हैं। इससे स्पष्ट है कि वे काव्यमात्र की व्याख्या और उनका स्वरूप निर्धारण आस्वाद की एक ही प्रक्रिया के धरातल पर नहीं करते, उनमें परस्पर भेद प्रतिलक्षित करते हैं। इस तरह वे 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' कहने वाले विश्वनाथ कविराज के अतिवादी दृष्टिकोण को तो अस्वीकार कर ही देते हैं, अमरुक जैसे कवियों के मुक्तकों में उन्हें 'प्रबन्धशतायते' कहकर रसपरिपाक की आनन्दवर्दन वाली धारणा को भी प्रत्यक्षतः स्वीकार नहीं करते । यों वे काव्य में रस की महनीयता के प्रशंसक हैं, किन्तु इस प्रसङ्ग में वे आचार्य रामचन्द्रशुक्ल की तरह कहीं यह भी नहीं कहते कि 'मुक्तकों में तो रस के छींटे ही उड़ा करते हैं।' रामचन्द्र-गुणचन्द्र के लिए रस की महत्ता तो है ही, उसके आधार पर काव्य-रचना की सुकरता एवं दुष्करता को भी बे लक्षित करते हैं और ग्रन्थारम्भ में ही आज की उस प्रचलित धारणा के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं जिसके अनुसार रसयुक्त काव्य की रचना करना भावों से खेल करना अतः एक हल्का काम है। उनकी धारणा है कि "कथा आदि [काव्य के अन्य प्रभेदों की रचना] का मार्ग अलंकारों से कोमल हो जाने के कारण सुखपूर्वक सञ्चरण करने योग्य है [अर्थात् अलंकार-प्रधान कथा आदि की रचना सरलता से की जा सकती है] किन्तु रसों की कल्लोलों से परिपूर्ण होने से नाट्य का मार्ग अत्यन्त कठिन [दुःसञ्चर] है।'' "वही [वास्तविक] कवि है और उसके काव्य [के पढ़ने] से मर्त्यलोक के वासी [मनुष्य भी [काव्यरस रूप] अमृत का पान करने वाले बन जाते हैं जिसकी वाणी नाटकों में रस की लहरियों में चकराती हुई-सी नाचती है। और इसीलिए "जो कवि नानार्थक [अर्थात् अनेकार्थ वाचक श्लिष्ट]
Jain.Education International
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन जैनाचार्य और रस-सिद्धान्त
६१६ .
शब्दों के प्रलोभन में [पड़कररसामृत से पराङ मुख हो जाते हैं [अर्थात् रस की उपेक्षा कर, केवल श्लेष आदि के निर्वाह के लिए शब्द प्रधान तुकबन्दी में लग जाते हैं] वे विद्वान् [शब्द-पटुता के कारण विद्वान् तो कहे जा सकते हैं किन्तु वे 'कवीन्द्राणां कथा न अहंन्ति'] उत्तम कवि नहीं कहा सकते हैं।"५ रामचन्द्र-गुणचन्द्र रस-प्रवाहरहित और श्लेष अलंकारयुक्त वाणी को कर्कश और सहृदय हृदयाह्लाद को उत्पन्न करने में असमर्थ मानते हुए उसकी दुर्भग स्त्रियों से तुलना करते हैं।
उक्त धारणाओं के आधार पर जहाँ यह निष्कर्ष निकलता है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र काव्य में रस-निर्वाह को ही उसकी उत्कृष्टता की कसौटी मानते हैं और उसके निर्वाह करने वाले कवि को ही उत्तम कवि कहते हैं, वहाँ यह भी निकलता है कि रसयुक्त काव्य अलौकिक और आह्लादकारी ही नहीं होता बल्कि रचना और आस्वादयिता दोनों के लिए अमृत की तरह जीवनदायी भी होता है। इसके विपरीत अलंकारों का प्रयोग शब्द-केलि मात्र है और शब्द-पटु विद्वानों के द्वारा व्यवहार्य है । रस-निर्वाह की तुलना में अलंकार-निर्वाह का कार्य सरल है।
इससे रस को महनीयता और उसकी अनिवार्यता का सहज-बोध तो होता है, किन्तु अलंकारादि युक्त काव्य का निषेध नहीं होता उसकी कोटि निर्धारित होती है। वह उत्तम काव्य नहीं है क्योंकि उसके रचयिता 'उत्तम कवि' नहीं हैं बल्कि विद्वान्' हैं । विद्वत्ता और कवित्व के बीच की सीमारेखा शब्द एवं रस-प्रयोग से निश्चित होती है । शब्दचमत्कार कोश-ज्ञान से सम्बन्ध रखता है और इसीलिए शब्द-ज्ञान पर्यन्त स्थिर रहता है और क्षणिक आनन्ददायी है, जबकि रस का सीधा सम्बन्ध हृदय से है, मानव की असीम भाव-शक्ति से है और इसीलिए रसयुक्त काव्य का प्रभाव हल्के चमत्कार और बौद्धिक ज्ञान या बौद्धिक व्यायाम सापेक्ष नहीं है, उससे युक्त काव्य की रचना भी इसीलिए सरल नहीं है । गोस्वामीजी ने 'रामचरितमानस' में इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए "भावभेद रसभेद अपारा" कहा है। काव्य की एकाध पंक्ति में रस-भाव का निर्वाह कर लेना और बात है, सम्पूर्ण प्रबन्ध या नाटक में नाना भावों एवं रसों का निर्वाह करते हुए किसी एक अङ्गीरस का समायोजन करना खेल नहीं है । अलंकार-योजना की तरह वह उक्तिचमत्कार-निर्भर नहीं है, अन्तःवृत्ति-निर्भर होने से अनन्त अज्ञात पयों में सञ्चार के सदृश अतः दुष्कर कार्य है। काव्य की आनन्दवादी व्याख्या से दुःखी होकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य को मनोरञ्जन की हल्की वस्तु मान लिए जाने के भय से खेद व्यक्त किया है, किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने उस आनन्द और आह्लाद की रक्षा करते हुए भी रसवाही काव्य को मनोरंजन की वस्तु नहीं माना और वैसा होने के कारण कोई दुःख व्यक्त नहीं किया, उलटे रसवाही काव्य की श्रेष्ठता का एक अच्छा और मौलिक तर्क प्रस्तुत करके उसके स्वरूप के प्रति निष्ठा व्यक्त की है। आज भी जो बौद्धिक कविता को कविता मानते हैं और रसवाही कविता को उपहास की दृष्टि से देखते हैं, उनके सामने यह तर्क बिना निष्प्रभ हुए प्रस्तुत किया जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र के उक्त कथनों से इतना ही तात्पर्य ग्रहण किया जाना चाहिए कि काव्य में रस का निर्वाह सरल नहीं, एक दुष्कर कार्य है जिसे नाटक में अपेक्षाकृत अधिक अच्छे ढंग से पूरा किया जा सकता है । नाट्य में रस की अनिवार्यता है, किन्तु मुक्तकादि अलंकार-निर्वाह से भी काम चल सकता है, और शब्द प्रयोग पर निर्भर रहने के कारण उनके प्रयोग में रस-निर्वाह की अपेक्षा सरलता रहती है। ऐसा नहीं कि मुक्तकादि में रस होता या हो ही नहीं सकता, किन्तु उनमें विभावादि समस्त सामग्री के संयोजन का कभी अवकाश नहीं भी रहता। और यदि गद्य कवियों की प्रतिभा का निकष है तो वह भी इसी दृष्टि से कि उसमें रस-भाव का परिपोष करना उतना सरल नहीं है जितना अलंकार ले आना है। यों पण्डितराज जगन्नाथ कितना भी कहें कि प्रतिभाशाली की सर्वत्र समान गति होती है. किन्तु जैसे काव्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मुक्तक में उक्ति-चमत्कार और अलंकार-निर्वाह सहजप्राय है और छोटे-छोटे छन्दों में कोई-कोई बिहारी जैसा श्रेष्ठ कवि ही रस-
निर्वाह की करामात दिखा सकता और गागर में सागर भर सकता है, वैसे ही यह भी स्पष्ट है कि बहुमुखी और सर्वत्र समान प्रतिमा के धनी लेखक भी कठिनाई से ही हआ करते हैं। पण्डितराज ने जहाँ अपनी रचना-शक्ति की प्रशंसा में सर्वत्र समान प्रतिमा सञ्चार की बात कही है, वहीं वे अपने को सामान्य मृग से भिन्न करते हुए 'कस्तूरिका-जनन' में क्षम मृग भी कहते हैं। कस्तूरीमृगों की दुर्लभता अज्ञात नहीं है, अतः विशिष्ट प्रतिभावानों की स्थिति की बात छोड़ दें तो काव्य-रचना में सुकरता दुष्करता का भेद अस्वीकार्य नहीं ठहरता।
रस-विचार के प्रसंग में 'नाट्यदर्पणकार' रसों का पूर्वापर क्रम तो वही निश्चित करते हैं जो भरत द्वारा किया गया है और उनकी उस पर व्याख्या भी भरत के कथन पर अभिनवगुप्त द्वारा की गयी व्याख्या का अनुगमन
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२०
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
emammummoniumarireemorrowmanormouseminarunmanner.inmunnation
करती है, परन्तु आगे चलकर मरत ने रसों में प्रमुखता-गौणता अथवा एक से दूसरे की उत्पत्ति की जो कल्पना प्रस्तुत की है और अभिनवगुप्त ने उस पर जो विस्तृत टीका लिखा है, उस सबका 'नाट्य दर्पण' में कहीं पता नहीं है। हाँ, पूर्वापर क्रम निर्धारण के बाद रामचन्द्र-गुणचन्द्र कतिपय नवेतर रसों का उल्लेख अवश्य करते हैं । ये हैं-लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख एवं सुख । इनके स्थायीभाव क्रमश: गद्ध (तृष्णा), आर्द्रता, आसक्ति, अरति और असन्तोष बताये गये हैं।" किन्तु जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है इनके पूर्व भी इन रसों का प्रस्ताव हो चुका था और कुछ विद्वान पूर्व-निर्धारित नवरसों में ही उनका अन्तर्भाव कर लेते थे।" स्वयं इन्हें अलग मानते हुए भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इनका लक्षणोदाहरण निर्देश नहीं किया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये स्वयं भी इनके प्रति दृढ़भाव न रखकर यहाँ इनकी सूचना मात्र देते हैं । लौल्य और स्नेह का प्रत्याख्यान तो स्वयं अभिनवगुप्त ही 'नाट्य-शास्त्र' की टीका में कर चुके थे।२ इन दोनों के सीधे प्रत्याख्यान से स्पष्ट है कि कुछ अन्य रसों के समान इनका प्रस्ताव भी अभिनव गुप्त के ही पूर्व हो चुका था। रामचन्द्र-गुणचन्द्र क्योंकि रस-संख्या के विषय में भी अभिनवगुप्त का ही अनुसरण करते हैं अत: उन्हीं के तर्क को प्रस्तुत करते हैं, परन्तु फिर भी उनके द्वारा प्रत्याख्यात लौल्य एवं स्नेहादि को चुपके से अन्य रसों में परिगणित भी कर लेते हैं और अपनी ओर से व्यसनादि का प्रस्ताव भी कर देते हैं। उनके गुरु हेमचन्द्र सूरि ने केवल अभिनवगुप्त को उद्धृत किया था, ये स्वयं प्रस्तावक भी बन गये। फिर भी इन्होंने भक्ति और वात्सल्य का रस रूप में नाम नहीं लिया । वस्तुतः जैसाकि हम अपने ग्रन्थ 'रस-सिद्धान्त : स्वरूप विश्लेषण' में दिखा चुके हैं इस प्रस्ताव में कोई बल नहीं
रामचन्द्र-गुणचन्द्र की ओर से कही गयी बातों में यदि कोई विशेष ध्यान आकर्षित करती है तो वह रसों को सुख और दुःख के आधार पर विभक्त करने की ही है और उसके सम्बन्ध में विद्वानों ने पर्याप्त विचार भी किया है। यहाँ उसकी दीर्घतावश हम उस विषय की चर्चा में न पड़कर इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र रस-निर्वाह में भी किस मूलतत्त्व को महत्त्व देते हैं। नाट्य और लौकिक अनुभव परस्पर दो भिन्न स्थितियाँ हैं। लोक में जो कुछ घटित होता है वह एक वस्तुस्थिति है और नाट्य में जो कुछ प्रदर्शित है वह वस्तुतः घटित नहीं उसका कलात्मक प्रदर्शन मात्र है। कलात्मक प्रदर्शन है, अतएव उसकी उपस्थापना भी लोक-भिन्न है, क्योंकि वैसा हुए बिना उसमें कोई आकर्षण नहीं रहता। रचना में इस आकर्षण की उपस्थिति का मार्ग है, अद्भुत तत्त्व का समावेश । अद्भुत की उपस्थिति के विषय में रामचन्द्र-गुणचन्द्र की स्थापना है कि नाटक में अङ्गाङ्गिभाव से रसव्यवस्था करते हुए उसके अन्त में अद्भुत रस का समावेश होना चाहिए ।
अंगी रस की कल्पना के उपरान्त भी निर्वहण सन्धि में नाटक के अन्त में अद्भुत रस की समाविष्टि की माँग कुछ विचित्र-सी ही है। नाटक या काव्य का पर्यवसान तो अंगी रस में ही होना चाहिए। अन्त अद्भुत रस में हुआ तो अंगी रस में बाधक तत्व उपस्थित होने का डर है । या फिर अद्भुत का यत्किचित् रूप में समावेश हो, अंगी के साधक के रूप में और केवल सांकेतिक ढंग से ही। रस-रूप में परिपाक न होकर विस्मय की हल्की लहर उत्पन्न करने वाला हो । कौतूहल की सीमा तक हो और अंगी रस की सिद्धि में हर्ष-संचार के साथ हो । ऐसा क्यों हो, इसकेलिए 'नाट्यदर्पण कार' का तर्क यह है कि यों तो सभी क्रियाओं का कोई न कोई फल या परिणाम तो होता ही है, किन्तु नाटक में भी वैसे ही सीधे-सादे परिणाम दिखाये जायें तो उसकी रचना का परिश्रम करने से भी क्या लाभ है ? नाटक में तो कुछ ऐसा हो जो एक ओर वह लोकोत्तर जान पड़े और दूसरी ओर असम्भाव्य । लोकोत्तर होगा तो सामान्य-जनों के द्वारा उसकी पूर्ति न हो सकने के कारण उसके प्रति सबकी लालसा जागृत होगी और यदि असम्भाव्य प्रतीत होगा तो नायक के विलक्षण आचरण और विशेष प्रयत्न के कारण सिद्धि की महनीयता भी प्रकट होगी और प्राप्ति का अलभ्य सुख भी प्रतीत होगा। या फिर अप्राप्ति की आकस्मिकता नाटक को प्रभावकारी त्रासदी में परिवर्तित कर देगी। विशेष प्रभाव के लिए इन दोनों-लोकोत्तरता और असम्भाव्यता-की योजना की आवश्यकता है।
नाटक (या काव्य) में इस विस्मय तत्त्व की योजना की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। अन्तर इतना ही है कि 'नाट्यदर्पणकार' इसकी योजना को एक तो अन्त में आवश्यक मानते हैं और दूसरे इसे अद्भुत रस कहते हैं। निःसंदेह वे अंगरस के रूप में उसे वहाँ स्वीकार नहीं करते । करते तो अंगरसों के कथन के साथ ही उसे भी स्थान देते हुए कहते कि अन्त भी उसी के साथ होना चाहिए । वे उसे अंगोरस भी नहीं कहते। इसका तात्पर्य, हमारी समझ से यही है कि वे उसे रस कहकर भी उसके सञ्चारित्व में विश्वास करते हैं, उसकी पूर्ण परिपुष्ट दशा में नहीं । अद्भुत तत्व उन्हें अन्तःप्रवाहित जान पड़ता है। केवल अन्त में उसके होने पर बल देकर उन्होंने उसके सार
०
०
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
• प्राचीन जैनाचार्य और रस-सिद्धान्त
६२१
रूप होने की बात को दृष्टि से ओझल-सा कर दिया है। या कहें कि उसे अन्यत्र उपस्थित मानकर अन्त में उसकी अनिवार्यता प्रतिपादित की है।
यहां यह शंका करना उचित नहीं होगा कि लोकोत्तरता तथा असंभाव्यता को समाविष्ट करके रामचन्द्रगुणचन्द्र ने आचार्यों द्वारा कथित प्रतिपत्तावयोग्यता तथा समावनाविरह नामक रस-विघ्न की कल्पना को ठुकरा दिया है। इन दोनों शब्दों से उनका तात्पर्य अविश्वसनीयता या पूर्णतया न घटित हो सकनेवाली अकल्पनीयता की ओर इंगित करना नहीं है, बल्कि केवल इतना है कि नाटक की घटनाओं को नितान्त तथ्यात्मक और सरल रूप में प्रस्तुत करना प्रभावकारी नहीं होगा। यों इस तत्त्व की योजना दिव्य अथवा दिव्यादिव्य कथाओं में सहज ही की जा सकती है, किन्तु अदिव्य कथाओं में भी घटना का मोड़ कुछ इस प्रकार का हो सकता है जिसकी हम ठीक उस समय कल्पना न कर रहे हों या कि जो साधारणजनों की शक्ति से करणीय कार्य न हो किन्तु असाधारण शक्ति सम्पन्न व्यक्ति उसे कर सकता हो । ऐसी योजना ही उनका अभिप्रेत हो सकती है । और यदि यह मान लिया जाय तो घटनाओं के इस आकस्मिक मोड़ को अन्त में ही प्रस्तुत करने की आवश्यकता की अपेक्षा यह मानना उचित होगा कि नाटक (या काव्य) में बीच में भी इस प्रकार की योजना की जा सकती है । अर्थात् उनमें निरन्तर एक अद्भुत तत्व आद्यन्त बना रह सकता है और उसी के कारण काव्य में नाटकीयता उपस्थित होती है।
इस प्रसंग में हम यह भी कहना चाहेंगे कि यह तत्त्व नाटकादि के लिए महत्वपूर्ण है अवश्य, किन्तु ऐसे नाटक भी हो सकते हैं, और काव्य भी जिनमें अन्त में अद्भुत का निर्वाह नहीं होने पर भी उनका काव्यत्व बना रहता है । विशेषतः शान्त रस के नाटक-काव्यादि में, इस बात की संभावना अधिक रहती है। उदाहरणतः, 'प्रबोध चन्द्रोदय' जैसे नाटक में । इसका तात्पर्य यह नहीं कि शान्त रस के नाटकों या काव्यों में इस तत्त्व की योजना हो ही नहीं सकती। हमारा कहना इतना ही है कि एक तो इसके बिना [अन्त में निर्वाह किये भी नाटकों को सृष्टि हो सकती है और दूसरे यह कि सम्भवतः 'नाट्यदर्पणकार' के समक्ष शृंगार और वीर रस युक्त नाटकों का विचार अधिक रहा हो, जिनमें इस प्रकार की योजना सहज है । जो हो, यहाँ यह बात और भी महत्वपूर्ण है कि अद्भुत की इस स्वीकृति की व्याख्या पश्चिम के शील-वैचित्र्य या अन्तःप्रकृति वैचित्र्य के अनुसार भी की जा सकती है जिससे आचार्य शुक्ल ने आश्चर्यपूर्ण प्रसादन, आश्चर्यपूर्ण अवसादन और कुतूहल की सिद्धि बताई है।"
अन्त में, हम कहना चाहेंगे कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र की दृष्टि में रस का महत्व नाटक में सर्वोपरि है और इस अर्थ में वे परम्परा का अनुमोदन ही करते हैं, किन्तु नाटक को सर्वत्र एक कलाकृति मानकर उसी दृष्टि से उसके तत्त्वों पर दृक्पात करने के विचार से उनमें मौलिकता भी पर्याप्त है। वे एक ओर अभिनवगुप्त का अनुगमन भी करते हैं और दूसरी ओर उनसे छिटक कर अपना नया मार्ग भी निकाल लेते हैं। यहाँ तक कि स्वयं अपने गुरु के प्रतिपक्ष में भी उपस्थित हो जाते हैं। उनकी मौलिकता आज के सन्दर्भ में भी सार्थक है और काव्य के स्वरूप, उसके भेद और उसके ग्रहण की प्रक्रिया को नये रूप में प्रस्तुत करने की संभावनाएं भी उनमें अमित हैं। हमने यहाँ जिन विषयों की ओर इंगित किया है उन पर विस्तारशः और सोदाहरण विचार किया जा सकता है और विचार की इस प्रक्रिया में पौरस्त्य मतों के साथ पाश्चात्य मतों का ग्रहण-त्याग भी समुचित दशा में हो सकता है । रसों की द्विविधता के विषय में उनके विचारों ने तो ध्यान आकर्षित किया ही है किन्तु इस पर विचार के लिए पुनः अत्यधिक विस्तार अपेक्षित है, अतः हमने कुछ अन्य क्षेत्रों की ओर इंगित करना ही उचित समझा है। इन विषयों के अतिरिक्त मी कुछ और विषय हैं जो विचारणीय हैं। यही कारण है कि जैन आचार्यों में से रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने विद्वानों का विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट किया है। सन्दर्भ एवं सम्वर्भ स्थल१. अर्थशब्दवपुः काव्यं रसैः प्राणविसर्पति ।
अञ्जसा तेन सौहार्द रसेषु कविमानिनाम् ॥ ना० द० ३/२१ ॥ २ ध्वन्यालोक, पृ० ३२५ तथा ३३१७ सं० ३ अलंकारमृदुः पन्थाः कयादीनां सुसञ्चरः ।
दुःसञ्चरस्तु नाट्यस्य रसकल्लोलसंकुलः ॥३१ ना० द०॥ ४ स कविस्तस्य काव्येन मा अपि सुधान्धसः ।
रसोमिघूर्णिता नाट्ये यस्य नृत्यति भारती ॥५।१ ना० द०॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ 622 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठम खण्ड 5 नानार्थ शब्दलौल्येन पराउचो ये रसामृतात् / विद्वांसस्ते कवीन्द्राणामर्हन्ति न पुनः कथाम् // 61 ना० द०॥ 6 श्लेषालंकारभाजोऽपि रसानिस्यन्दकर्कशाः / दुभंगा इव कामिन्यः प्रीणन्ति न मनो गिरः // 71 ना० द०॥ साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहप्रन्थिले तके वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती॥ शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाकुरैरास्तृता / भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् / / रस गंगाधर, श्लोक 6. & मिलाइये, अभिनव भारती, पृ० 267 तथा हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० 305 / 10 गद्ध स्थायी लौल्यः / आर्द्रता स्थायी स्नेहः। आसक्तिस्थायि व्यसनम् / अरतिस्थायि दुःखम् / सन्तोषस्थायि सुखमित्यादि। -हिना०व०पृ० 306 / 11 केचिदेषां पूर्वेष्वन्तर्भावमाहुरिति / -हि० ना०व०, पृ० 306 / 12 आर्द्रतास्थायिकः स्नेहो रस इति स्वसत् / स्नेहो ह्यभिषङ्गः। स च सर्वो रत्युत्साहादावेव पर्यवस्यति / तथाहि -बालस्य मातापित्रादी स्नेहो भये मिश्रान्तः। यूनोमित्रजेन रतौ। लक्ष्मणादी भ्रातरि स्नेहो धर्ममय एव / एवं वृद्धस्य पुत्रादाविति द्रष्टव्यम् / एषैव गर्द्ध स्थायिकस्य लोल्यरसस्य प्रत्याख्याने सरणिमन्तव्या। हासे वा रतौ वान्यत्र पर्यवसानात् / एवं भक्तावपि वाच्यमिति / -अभि० भा० पृ० 341 / 13 मिलाइये-पुमर्थोपयोगित्वेन रञ्जनाधिक्येन वा इयतामेवोपदेश्यत्वात् / तेन रसान्तरसंभवेऽपि चार्ष प्रसिद्ध या संख्यानियम इति यदन्यैरुक्तं तत्प्रत्युक्तम् / -अभि० भा०, पृ० 341 / एते शृङ्गारादयो नवैव रसा रञ्जनाविशेषेण पुरुषार्थोपयोगाधिक्येन च सद्भिः पूर्वाचार्यरुपदिष्टाः सम्भवन्ति त्वपरेऽपि / -हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० 306 / 14 पृ० 320-321 / 15 एकाङ्गि रसमन्याङ्गमद्भुतान्तं रसोमिभिः / अलङ्घितमलङ्कार-कथाङ्ग रगलद्रसम् / / -ना० 30, प्रथम विवेक, का० 15, सूत्र 12 / 16 नाटकं हि सर्वरसं, केवलमेको अंगी, तदपरे गौणाः। अद्भुत एव रसो अन्ते निर्वहणे यत्र / यतः शृगार-वीर-रौद्रे: स्त्रीरत्न-पृथ्वीलाम-शत्रुक्षयसम्पत्तिः / करुण-भयानक-वी मत्सः तन्निवृत्तिः। इति इयता क्रमेण लोकोत्तरासम्भाव्यफल प्राप्तो भवितव्यमत्त अद्भुतेनैव / अपि च नाटकस्यासाधारणवस्तुलाभ: फलत्वेन यदि न कल्प्यते तदानीं क्रियायाः फलमात्र किञ्चिदस्त्येवेति किं तत्रोपायव्युत्पादनक्लेशेन / -ना०२० (हिन्दी), पृ० 37 / 17 चिन्तामणि, भाग 1, पृ० 317 -0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-3 ४-०-पूष्कर संस्म रण-6--0--0--0--0--0-0-0------------------------- गरम का नुकसान होता है घोड़नदी वर्षावास में आपश्री को गैस की शिकायत थी, एक अनुभवी वैद्य ने / बताया कि दूध में जरा निंबू का रस डाल देवें तो दूध तत्काल फट जाता है / आपने दूध में जरा सा निंबू का रस डाला, किन्तु दूध फटा नहीं, आपने कहा-दूध क्यों नहीं फटा ? मैंने कहा--गुरुदेव ! जो दूध गरम होता है वह जल्दी फटता है / ठण्डे दूध को फटने में विलम्ब लगता है / आपश्री ने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाते हुए कहा / -जो गरम होता है उसका नुकसान जल्दी होता है और जो ठण्डा है उसका नुकसान दूसरा नहीं कर पाता / अत: जीवन में शांति आवश्यक है। 0-0----------------------------------------------------- .