Book Title: Prachin Jain Agamo me Charvak Darshan ka Prastutikaran evam Samiksha Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 7
________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा 223 अगुरुलघु है उसी प्रकार जीव भी अगुरुलघु है। अत: तुम्हारा यह तर्क जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहाँ तक चार्वाक दर्शन के है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। अब यह तर्कपरस्सर प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है, उसे आगमिक व्याख्या तर्क भी वैज्ञानिक दृष्टि से युक्ति संगत नहीं रह गया है। क्योंकि साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में देखा जा सकता है। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वायु में वजन होता है। दूसरे यह भी प्रयोग जिनभद्रगणि क्षमा-श्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठी शती में प्राकृत भाषा करके देखा गया है कि जीवित और मृत शरीर के वजन में अन्तर पाया में निबद्ध इस ग्रन्थ की लगभग 500 गाथायें तो आत्मा, कर्म, पुण्यजाता है। उस युग में सूक्ष्म तुला के अभाव के कारण यह अन्तर ज्ञात पाप, स्वर्ग-नरक, बन्धन-मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा नहीं होता रहा होगा। से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना राजा ने फिर एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया और कहा कि मैंने जाता है और अब स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत एक चोर के शरीर के विभिन्न अंगों को काट कर चीर कर देखा लेकिन निबन्ध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था, अत: इस मुझे कहीं भी जीव नहीं दिखाई दिया। अतः शरीर से पृथक् जीव की निबन्ध को यहीं विराम दे रहे हैं। सत्ता सिद्ध नहीं होती। इसके प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने निम्न सन्दर्भ उदाहरण देकर समझाया 1. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 1, भूमिका, पृ. 39 हे राजन! तू बड़ा मूढ़ मालूम होता है, मैं तुझे एक 2. दीघनिकाय, नवनालन्दा विहार, नालन्दा, पयासीसुत्त उदाहरण देकर समझाता हूँ। एक बार कुछ वन-जीवी साथ में अग्नि 3. राजप्रश्नीयसूत्र (संपा० मधुकरमुनि), भूमिका, पृ. 18 लेकर एक बडे. जंगल में पहुंचे। उन्होंने अपने एक साथी से कहा, हे 4. ऋषिभाषित (इसिभासियाई), प्राकृत भारती जयपुर, अध्याय२० देवानुप्रिय! हम जंगल में लकडी लेने जाते हैं, तू इस अरणी से आग 5. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1549-2024 जलाकर हमारे लिए भोजन बनाकर तैयार रखना। यदि अग्नि बुझ 6. एवमेगेसिं णो णातं भवति-अस्थि मे आया उववाइए...... से जाय तो लकड़ियों को घिस कर अग्नि जला लेना। संयोग वश उसके आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी। साथियों के चले जाने पर थोडी ही देर बाद आग बुझ गई। अपने - आचारांग (सं० मधुकरमुनि), 1/1/1/1-3 साथियों के आदेशानुसार वह लकड़ियों को चारों ओर से उलट-पुलट छणं परिण्णाय लोगसण्णं सव्वसो कर देखने लगा, लेकिन आग कहीं नजर नहीं आई। उसने अपनी - आचारांग, १/२/६/१०४कुल्हाड़ी से लकड़ियों को चीरा, उनके छोछे-छोटे टुकड़े किये, 8. सूत्रकृतांग (संपा० मधुकरमुनि), 1/1/1/7-8 किन्तु फिर भी आग दिखाई नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया 9. वही, 11-12 सका। इतने में जंगल में से उसके साथी लौटकर आ गये, उसने उन 11. वही, 5/5-7 लोगों से सारी बातें कहीं। इस पर उनमें से एक साथी ने शर बनाया 12. जहा य अग्गी अरणी उऽ सन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु। और शर को अरणि के साथ घिस कर अग्नि जलाकर दिखायी और एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिठे। फिर सबने भोजन बना कर खाया। हे पएसी! जैसे लकडी को चीर - उत्तराध्ययनसूत्र, 14/18. कर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही 13. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। शरीर को चीर कर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख - वही, 14/19 नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है 14. ऋषिभाषित (इसिभासियाई), अध्याय 20 किन्तु तुम्हारी प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खता पूर्ण है जैसे अरणि को 15. वही, अध्याय 20 चीर-फाड़ करके अग्नि को देखने की प्रक्रिया, अतः हे राजा! यह 16. उत्कल, उत्कुल और उत्कूल शब्दों के अर्थ के लिए देखिएश्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है। संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी (मोनियर विलियम्स), पृ. 176 , यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग 17. ऋषिभाषित (इसिभासियाई), अध्याय 20 में इतने सबल नहीं रह गये हैं, किन्तु प्राचीन काल में सामान्यतया 18. वही, * चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिये ये 19. वही, ही तर्क प्रस्तुत किये जाते थे। 20. वही, अत: चार्वाक दर्शन के ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से 21. वही, इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में इनमें से अधिकांश 22. सूत्रकृतांग (सं० मधुकरमुनि) द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्याय 1, तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता और प्राचीनता भी सूत्र 648-658 स्वत: सिद्ध है। 23. राजप्रश्नीय (मधुकरमुनि), पृ. 242-260 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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