Book Title: Prachin Jain Agamo me Charvak Darshan ka Prastutikaran evam Samiksha Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 6
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २२२ अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन रक्षण में बराबर होता है। अत: एक दिन का भी विलम्ब होने पर यहाँ मनुष्य प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन-संचय कालधर्म को प्राप्त हो जाता है। पुनः मनुष्य लोक इतना दुर्गन्धित और ही करना। देहात्मवादियों के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण मनुष्य लोक में देव आना ने निम्न समाधान प्रस्तुत किया-- हे राजन! जिस प्रकार अपने अपराधी नहीं चाहते हैं। अत: तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा को इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्र-मित्र और ज्ञाति रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जनों को यह बताये कि मैं अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूँ, तुम केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक ऐसा मत करना। इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित प्रतिबोध देने के लिए आना चाहकर भी यहाँ आने में समर्थ नहीं हैं। ही एक लोहे की कुम्भी में बन्द करवा कर अच्छी तरह से लोहे से नारकीय जीव निम्न चार कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आ सकते। उसका मुख ढक दिया फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से लेप करा सर्वप्रथम तो उनमें नरक से निकल कर मनुष्य लोक में आने की दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वास पात्र पुरुषों को रख सामर्थ्य ही नहीं होती। दूसरे नरकपाल उन्हें नरक से बाहर नकलने की दिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने उस कुम्भी को खुलवाया तो देखा कि वह अनुमति भी नहीं देते। तीसरे नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय मनुष्य मर चुका था किन्तु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र, विवर या दरार नहीं होने से वे वहाँ से नहीं निकल पाते। चौथे उनका नरक सम्बन्धी नहीं थी, जिससे उसमें बन्द पुरुष का जीव बाहर निकला हो, अत: आयुष्य कर्म जब तक क्षीण नहीं होता तब तक वे वहाँ से नहीं आ जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। सकते। अतः तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर अन्य है, अपितु किया-जिस प्रकार एक ऐसी कूटागारशाला जो अच्छी तरह से आच्छादित यह मान्यता रखो कि जीव अन्य है और शरीर एक ही है। स्मरण रहे हो उसका द्वार गुप्त हो यहाँ तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्य लोक में न आ पाने के इन्हीं चार सके। यदि उस कूटागारशाला में कोई व्यक्ति जोर से भेरी बजाये तो कारणों का उल्लेख किया गया है। केशिकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनायी देगी कि नहीं? निश्चय ही को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया वह आवाज सुनायी देगी। अत: जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गति वाला हे श्रमण! मेरी दादी अत्यन्त धार्मिक थीं, आप लोगों के मत है उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत गति वाला है अत: तुम यह श्रद्धा के अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। ज्ञातव्य है कि अब यह तर्क का अत्यन्त प्रिय था, अत: उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि हे विज्ञान सम्मत नहीं रह गया है, यद्यपि आत्मा की अमूर्तता के आधार पौत्र! अपने पुण्य कर्मों के कारण मैं स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी मेरे पर राजा के उपरोक्त तर्क का प्रति उत्तर दिया जा सकता है। समान धार्मिक जीवन बिताओ जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क कर स्वर्ग में उत्पन्न होओ। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे प्रस्तुत कियाऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अत: मैं यही मानता हूँ कि जीव और शरीर मैंने एक पुरुष को प्राण रहित करके एक लौह कुम्भी में डलवा भिन्न-भिन्न नहीं हैं। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण दिया तथा ढक्कन से उसे बन्द करके उस पर शीशे का लेप करवा दिया ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया-हे राजन्! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कुछ समय पश्चात् जब उस कुम्भी को खोला गया तो उसे कृमिकुल से कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो उस समय कोई पुरुष व्याप्त देखा, किन्तु उसमें कोई दरार या छिद्र नहीं था जिससे आकर उसमें शौचालय में खडा होकर यह कहे कि हे स्वामिन्! यहाँ आओ! कुछ जीव उत्पन्न हुए हों। अत: जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है। राजा के समय के लिए यहाँ बैठो, खड़े होओ, तो क्या तुम उस पुरुष की बात इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशिकुमार श्रमण ने अग्नि से तपाये लोहे के गोले को स्वीकार करोगे। निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं का उदाहरण दिया। जिस प्रकार लोहे के गोले में छेद नहीं होने पर भी चाहोगे। इसी प्रकार हे राजन! देव लोक में उत्पन्न देव वहाँ के दिव्य अग्नि उसमें प्रवेश कर जाती है उसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गति वाला काम भागों में इतने मूर्छित, गृद्ध और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्य होने से कहीं भी प्रवेश कर जाता है। लोक में आने की इच्छा ही नहीं करते। दूसरे देवलोक सम्बन्धी दिव्य केशिकुमार श्रमण का यह प्रत्युत्तर सुनकर राजा ने पुन: एक भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम नया तर्क प्रस्तुत किया। उसने कहा कि, मैंने एक व्यक्ति को जीवित व्युच्छिन्न हो जाता है, अत: वे मनुष्य लोक में नहीं आ पाते। तीसरे रहते हुए और मरने के बाद दोनों ही दशाओं में तौला; किन्तु दोनों देवलोक में उत्पन्न वे देव वहाँ के दिव्य कामभागों में मूर्छित या तल्लीन के तौल में कोई अन्तर नहीं था। यदि मृत्यु के बाद आत्मा उसमें से होने के कारण अभी जाता हूँ-- अभी जाता हूँ ऐसा सोचते रहते हैं, निकला होता तो उसका वजन कुछ कम अवश्य होना चाहिए था। किन्तु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने वायु से भरी हुई और वायु से जाते हैं। क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्य लोक के सौ वर्ष के रहित मशक का उदाहरण दिया और यह बताया कि जिस प्रकार वायु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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