Book Title: Prachin Bharat ki Jain Shikshan paddhati Author(s): Harindrabhushan Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ डा० हरीन्द्रभूषण जैन : प्राचीन भारत की जैन शिक्षण पद्धति : ५५६ उत्तराध्ययन- टीका में निम्न प्रकार १४ विद्यास्थान ( अध्ययन के विषय) बताए गए हैं। -४ वेद, ६ वेदांग, मीमांसा, नाय ( न्याय), पुराण तथा धम्मसत्थ ( धर्मशास्त्र). कुछ ऐसे भी विषय थे जिनका पठन-पाठन की दृष्टि से निम्न स्थान था ऐसे विषय संसारत्यागी साधुजनों के लिये पापकहे जाते थे. स्वानाङ्ग सूत्र में ऐसे पापों का वर्णन है ! उनकी संख्या नी है. १. उपाय ( अपशकुन - विज्ञान ) २. निमित्त ( शकुन - विज्ञान ) ३ मन्त ( मन्त्र विद्या ) ४. आइक्खिय ( नीच-इन्द्रजाल विद्या) ५. गिच्छिय (चिकित्सा - विज्ञान ) ६. कला (कला-विज्ञान) ७. आवरण (गृह-निर्माण-विज्ञान ) ८. अण्णाण ( साहित्यविज्ञान-काव्य-नाटकादि) १. मिश्रापण ( अतस्य शास्त्र ) - अंग शास्त्र में ७२ कलाओं का वर्णन मिलता है. 3 यद्यपि सभी छात्र इन समस्त कलाओं में निपुणता प्राप्त नहीं करते थे फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार इन कलाओं में दक्षता प्राप्त करना प्रत्येक छात्र का उद्देश्य होता था. ये कलायें १३ भागों में विभक्त हैं : १. पठनकला - लेह (लेख) और गणित. २. कापला पोरकब्द (कविता निर्माण) अन्ना (आय छन्द में कविता या निर्माण), पहेलियां (प्रहेलिका का निर्माण), मागधिया ( मागधी भाषा में काव्यनिर्माण ) गाया (गाथाछन्द में काव्य निर्माण) गोइय ( गीतों का नर्माण ) तथा सिलोय ( श्लोकों का निर्माण ) , ३. मूर्तिनिर्माण काल - रुव (रूप ) ४. संगीतविज्ञान - नट्ट ( नृत्य ), गीय ( संगीत ), वाइय (वाद्य), सरगम, पुक्खरगय ( ढोल वादन ) तथा ताल. ५. मृत्तिकाविज्ञान — दगमट्टिय. ६. द्यूतक्रीडा तथा गृह क्रीडा - जुआ ( द्यूत) जणवाय ( अन्य प्रकारका जुआ ) . पाय (पांसों का बेल) अद्वावव (घतरंज) सुत्तखेड कठपुतली का नाच वत्य (भरे का खेल तथा नासिकाखेड ( अन्य प्रकार के पासों का खेल ). ७. स्वास्थ्य शृङ्गार तथा भोजनविज्ञान अन्नविहि (भोजन विज्ञान), पाणविहि (पान), वत्यविहि (वस्त्र) विलेच (शृंगार) सपन (गव्या विज्ञान), हिरण जुति (चांदी के आभूषणों का विज्ञान) सुवण ( सोने के आभूषणों का विज्ञान), आभरणविहि (आभूषणों का विज्ञान), चुण्णजुति ( शृंगारचूर्ण विद्या), तरूणी पडिकम्म (तरुणियों के शरीर को सुन्दर बनाने की विधि), पत्तज्ज (पत्रों से सुन्दर आभूषण बनाना) तथा कच्छेत्ता (भाल का सजाना) ८. चिह्नविज्ञान - लक्षण - इसमें चिह्नों के द्वारा स्त्री, पुरुष, घोड़ा, हाथी, गाय, मुर्गा, दासी, तलवार, रत्न तथा छत्र के भेद को जानना सम्मिलित था. , शकुनि-विज्ञान — इसमें पक्षियों की बोलियों का ज्ञान आवश्यक था. १०. खगोलविद्या - चार ( ग्रहों के चलन ) तथा पडिचार ( प्रतिचलन) की विद्या. अन्य आचार्यों ने की. इनमें तीर्थंकरों के यशोगान तथा श्रमण एवं उपासकों के कर्त्तव्यों का वर्णन था. बाद में सुलसा, याज्ञवल्क्य आदि ने अनार्थवेदों की रचना की.' आवश्यक चूर्णि, २१५. १. उत्तराध्ययन टीका, ३१० ५६ अ० २. स्थाना सूत्र, ६, ६७८. ३. नायाम्धमकाओ, १, २०, ५० २१, Jain Education Inational www.jaary.orgPage Navigation
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