Book Title: Prachin Bharat ki Jain Shikshan paddhati Author(s): Harindrabhushan Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 4
________________ १५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय चाण्डाल की चर्चा आती है जो स्वयं ऋषि बन गया था और सभी गुणों से अलंकृत हुआ. १ जैनशास्त्रों में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि वर्ण व्यवस्था जन्मगत नहीं, कर्मगत है. 'कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही सूद होता है." आचार्य और उनका व्यक्तित्व — ऋग्वैदिक आचार्य, जिसके दिव्य प्रतीक अग्नि और इन्द्र हैं, तत्कालीन ज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से समाज में सर्वोच्च व्यक्ति थे. आचार्य विद्यार्थी को ज्ञानमय शरीर देता था. वह स्वयं ब्रह्मचारी होता था और अपने ब्रह्मचर्य की उत्कष्टता के बल पर असंख्य विद्यार्थियों को आकर्षित कर लेता था. ३ जैन आचार्यों पर महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की छाप रही है. वे अपना जीवन और शक्ति, मानवता को सत्पथ दिखाने के प्रयत्न में ही लगा देते थे. आचार्य के आदर्श व्यक्तित्व की, जैन-संस्कृति में, जो रूपरेखा बनी वह इस प्रकार थी 'वह सत्य को नहीं छिपाता था और न उसका प्रतिवाद करता था. वह अभिमान नहीं करता था और न वह यश की कामना करता था. वह कभी भी अन्यधर्मों के आचार्यों की निन्दा नहीं करता था. सत्य भी, कठोर होने पर उसके लिये त्याज्य था. वह सदैव सद्विचारों का प्रतिपादन करता था. शिष्य को डांट-डपट कर या अपशब्द कहकर वह काम नहीं लेता था. वह धर्म के रहस्य को पूर्णरूप से जानता था. उसका जीवन तपोमय था. उसकी व्याख्यानशैली शुद्ध थी. वह कुशल विद्वान् और सभी धर्मों का पण्डित होता था. ५ 'रायपसेणिय सूत्र' में तीन प्रकार के आचार्यों का वर्णन है : १ - कलायरिय - कला के अध्यापक. २- सिप्पायरय - शिल्प के अध्यापक. ३ - धम्मायरिय— धर्म के अध्यापक. यह विधान था कि प्रथम तो आचार्यों के शरीर पर तेल का मर्दन किया जाय, उन्हें पुष्प भेंट किये जाएं, उन्हें स्नान कराया जाय, उन्हें सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित किया जाय, उन्हें सुस्वादु भोजन कराया तथा उन्हें योग्य पारिश्रमिक और पारितोषिक दिया जाय. मगर धर्माचार्य की बात कुछ और तरह की है. भोजन, पान आदि के द्वारा योग्य सम्मान करके उन्हें विविध प्रकार के उपकरणों से संतुष्ट किया जाता था. वह भी बदला चुकाने के लिये नहीं, केवल भक्तिवश ही. अध्ययन और उसके विषय - वैदिक शिक्षण के आदिकाल से ऋग्वेद का अध्ययन और अध्यापन सर्वप्रथम रहा है. वेद के अतिरिक्त वेदांग, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण तथा ज्योतिष का महत्त्व भारतीय विद्यालयों में सदैव रहा है. 'भगवती सूत्र' में अध्ययन के विषय निम्न प्रकार बतलाए गए हैं : ६ वेद. ६ वेदांग तथा ६ उपांग. ६ वेद इस प्रकार हैं—१ ऋग्वेद, २ यजुर्वेद, ३ सामवेद, ४ अथर्ववेद, ५ इतिहास (पुराण) तथा ६ निघण्टु. ६ वेदांग इस प्रकार हैं- १ संखाण ( गणित ), २ सिक्खाकप्प (स्वर - शास्त्र ), ३ वागरण (व्याकरण), ४ छंद, ५ ५ निरुक्त (शब्दशास्त्र ) तथा ६ जोइस (ज्योतिष) ६ उपायों में प्रायः वेदांगों में वर्णित विषयों का और अधिक विस्तार पूर्वक वर्णन था." १. उत्तराध्ययन १२ १. २. वही, २५. ३३. ३. अथर्ववेद, ११.५, १३. ४. आरा १, ६, ५. २-४. ५. सूत्रकृतांग १.१४, १६-२७. ६. स्थानांग, ३. १३५. ७. स्थानांग, ३. ३. १८५. 'जैन परम्परा के अनुसार वेद दो प्रकार के हैं - १ आर्यवेद और २ अनार्थवेद श्रर्यवेदो की रचना भरत तथा ww ary.orgPage Navigation
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