Book Title: Paurpat Anvay 1 Author(s): Fulchandra Jain Shatri Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 8
________________ ३५८ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड वाले ब्राह्मण-क्षत्रिय कुलों को मिला कर इस पौरवाड़ (प्राग्वाट) अन्वय का संगठन हुआ है। इस अन्वय के दो नाम होने का कारण भी यही प्रतीत होता है। इस विवेचन से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं : (i) प्राग्वाट या पौरवाड़ का संगठन जिन ब्राह्मण-क्षत्रियों के कुलों को मिला कर हुआ है, उनमें परमार क्षत्रियों का प्रमुख स्थान था । (ii) प्राचीन पट्टावलियों में पट्टधर आचार्य गुप्तिगुप्त के 'पवार या प्रमार' अन्वय का अर्थ पौरपाट (परवार) अन्वय ही है। उज्जैन से प्राप्त पट्टावली तो उन्हें स्पष्टतः 'परवार' बताती हैं । (i) सूरीपुर पट्टावली के अनुसार, इन्हीं पट्टधर आचार्य गुप्तिगुप्त के द्वारा एक हजार परवार कुटुम्बों की स्थापना का उल्लेख यथार्थ है। ___कुछ पुरातत्त्वज्ञ इन पट्टावलियों की प्रामाणिकता में शंका करते हैं। यह समीचीन नहीं है। प्राचीन आचार्य वीतराग होते थे, वे अपने कूल और जाति के विषय में मौन रहते थे। प्रयोजनवश ही उन्होंने प्रथमानयोग के ग्रन्थों में वर्ण कल एवं वंशों का उल्लेख किया है। जब श्वेताम्बरों ने अपने सम्प्रदाय की श्रेष्ठता के लिए इन अन्वयों के प्रति पक्षपाती रुख अपनाया, तब भट्टारकों ने भी पुरानी अनुभूतियों के आधार पर पट्टावलियों का संकलन प्रारम्भ किया। इनमें उल्लिखित जातियों का मूल ये अनुश्रुतियां ही है। इन्हें अप्रामाणिक मानना भूल होगी। पूर्व-उद्धरित नागौर पटावली में पट्टधर गप्तिगुप्त के अतिरिक्त क्रमांक ४,३३, ७३ व ७८ पर पौरवाड़ जातीय चार पट्टधरों का विवरण दिया है। यही हमारे हमारे गौरवपूर्ण इतिहास के स्रोत है । न तो सीकर और न नागौर ही बन्देलखण्ड में है। पूर्व-उल्लिखित पट्टावलियों का संकलन भी बुन्देलखण्ड के भट्टारक या आचार्य ने नहीं किया है। फिर भी, उनमें आचार्यों के जाति ख ह। इसी से इन पट्टावलियों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। इन पट्टावलियों का मिलान शुभ धन्द १ को गुर्वावलो से भी होता है-एकाध क्रम में कुछ अन्तर है। (iv) पौरपाट या पौरवाड़ अन्वय के श्रावक कुल मूल में बुन्देलखण्ड के निवासी न होकर मेवाड़ और जरात से परिस्थितिवश इधर आकर चन्देरी को केन्द्र बनाकर बसते गये। इस अन्वय के श्रावकों का जंगली पहाडी या ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं पाये जाने का भी यही कारण है कि वे इस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं है । (v) नन्दिसंघ बलात्कार गण सरस्वती गच्छ की 'महावीर की आचार्य परम्परा' ग्रन्थ में मुद्रित पट्टावली में गतिगुप्त के तीन नाम बताये हैं-अहंद्वलि, विशाखाचार्य और गुप्तिगुप्त १ इन्होंने निम्न चार संघ स्थापित किये : १. नन्दि संघ नन्दिवृक्षमूल से वर्षा योग माघनन्दि २. वृषभ संघ तृण तल वर्षा योग जिनसेन वृषभ ३. सिंह संघ सिंह गुप्ता में वर्षा योग ४. देव संघ देवदत्ता वेश्या की नगरी में वर्ण योग नंदिसंघ में ही आचार्य धरसेन का क्रम आता है। वस्तुतः गुप्तिगुप्त ने ही धरसेन और पुष्पदन्त-भूतवलि संयोग कराकर श्रुनरक्षा का आधार बनाया। ३. पौरपाट (परवार) अन्वत्र के संगठन का स्थान पूर्वोक्त ऐतिहासिक तथ्य प्रकट करते हैं कि इस अन्वय का संगठन प्रदेश की अपेक्षा 'प्राग्वाट' प्रदेश में तथा नामान्तर 'पौरवाड़ या पौरपाट' को कारण इस प्रदेश के अन्तर्गत पुरमण्डल में हुआ है। अतः यह आवश्यक है कि प्राग्वाट प्रदेश और उसके पुरमण्डल स्थानों के विषय में ऊहापोह करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16