Book Title: Paurpat Anvay 1
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 6
________________ ३५६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड यदि दिगंबराचार्य हारेगे, तो एक चोर के समान उनका तिरस्कार कर पत्तनपुर से बाहर निकाल दिया जायगा। के. एम० मंशी ने भी अपने 'गुजरातनो नाथ' में इस प्रकरण का चित्रण किया है। कवि वख्तावरमल के कथन के अनुसार, परवारों के एक भेद-सोरठिया को गति भी संभवतः यही हुई होगी। श्वेतांबरों में भूतकाल की यह प्रकृति अब भी चालू है और यदाकदा उसके विकृत रूप सुनने-पढने की मिल जाते हैं। इस समय बुंदेलखंड में जो पौरपाट (परवार) अन्वय के कुंटुंब रह रहे हैं, उनका मूल निवास स्थान गुजरात और मेवाड़ का प्राग्वाट प्रदेश ही है। इसमें कोई संदेह नहीं। वहां से उनके स्थानांतरित होने का मूल कारण उनकी आजीविका नहीं है, अपितु श्वेतांबर समाज और उनके साधुओं का धार्मिक उन्माद ही है । इसके कारण अपने आम्नाय की की रक्षा के लिये इन्हें उस स्थान को छोड़कर चंदेरी और उसके आस-पास के क्षेत्र में बसने के लिये बाध्य होना पड़ा। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार पौरपाट (परवार) अन्वय में भ० महावीर के काल में पाये जाने वाले पुराने जैनों को लोन करके इस अन्वय को मूर्तरूप दिया गया था, उसी प्रकार उत्तरकाल में प्राग्वाट अन्वय को लेकर भी इस अन्वय का संगठन हुआ है। इसके अतिरिक्त, अनेक तथ्यों से ज्ञात होता है कि इस अन्वय के निर्माण में मुख्यतः परमार वंश का भी बड़ा योगदान है। यदि यह कहा जाय कि प्राग्वाट अन्वय का विकास भी परमार वंश से ही हुआ है, तो भी कोई आपत्ति नहीं। प्राग्वाट इतिहास पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि इसका संगठन परमार क्षत्रियों के अनेक उपभेदों को लेकर हआ था। अनेक क्षत्रिय एवं व्राह्मण कुलों में से उन्हें प्राग्वाट अन्वय में दीक्षित किया गया है। इसलिये यहाँ यह विचारणीय हो जाता है कि ये क्षत्रिय कुल पहले किस अन्वय को मानने वाले थे। प्रमाणों के प्रकाश में विचार करने पर ऐसा लगता है कि वे परमार अन्वय के क्षत्रिय होने चाहिये । इसकी पुष्टि अनेक पट्टावलियों से भी होती है । 'गुजरातनो नाथ' में कीर्तिदेव नामक युवक का जिक्र आया है। यह पाटन महामात्य 'मुंजाल प्राग्वाट' का पत्र था। इसे उसके मामा सज्जन मेहता ने उसकी रक्षा के अभिप्राय से उन दिनों यात्रा पर आये हुए अवंती के सेनापति 'उवक परमार' को सौंप दिया था। इस घटना से प्राग्वाट अन्वय के विकास में परमारों के योगदान का पता लगता है। स्व० पं० झम्मनलाल जी तर्कतीर्थ ने 'लमेचू दि० जैन समाज का इतिहास' के पृष्ठ ३८ पर सूरीपुर (उ० प्र०) से प्राप्त पट्टावली के आधार से लिखा है : "प्रमार (परमार) वंश में राजा विक्रम हुए। उनका संवत् चालू है । उनके नाती (पोता) गुप्ति गुप्त मुनि थे। जिन्होंने सहस्र परवार थापे । गुप्तिगुप्त परमार जाति क्षत्रिय वंश में विक्रम संवत् २६ में हुए हैं। यह चन्द्रगुप्त राजा का वंश होता है-वह भी यदुवंश हो है।" पूर्व उल्लिखित चारित्रसार के परिशिष्ट में नागौर के शास्त्रभंडार से प्राप्त एक पट्टावली मुद्रित है। इसमें पट्टधर आचार्य गुप्तिगुप्त के विषय में लिखा है-श्री मिती फाल्गुन शुक्ल १४ विक्रम संवत् २६, जाति राजपूत पवारोत्पन्न श्री गुप्तिगुप्त हुए । इनका गृहस्थावस्थाकाल २२ वर्ष, दीक्षाकाल २४ वर्ष, पट्टस्थकाल ९ वर्ष ६ माह २५ दिन एवं विरह काल ५ दिन रहा । इनको सपूर्ण आयु ६५ वर्ष ७ दिन की थी। ___ डा. हरीन्द्रभूषणजी के विशेष अनुरोध पर पं० मूलचंद्र शास्त्री उज्जैन ने मुझे एक पट्टावली भेजी थी। उसमें मुनिजन और भट्टारकों की दिगंबर पट्टावली है। उसमें सर्वप्रथम भद्रबाहु द्वितीय (ब्राह्मण) का विशेष परिचय देने के बाद क्रमांक २ पर पट्टधर आचार्य गुप्तिगुप्त की जाति परवार कहते हुए उपरोक्त नागौरो पट्टावली के अनुसार ही परिचय दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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