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(E) युगप्रधानाः (संस्कृत)-उपा० श्रीविनयविजय जी रचित व पं. ही. है. जामनगर द्वारा प्रकाशित "लोकप्रकारा" के ३४ वें सर्ग में दुसमाकालसमणसंघथयं का विशद अवतरण संस्कृत भाषा में दिया है। प्रतएव मैंने इसे वहां से संगृहीत किया है। रचनाकाल वि. सं. १७८८ है। गून्यकर्ता का परिचय पृ० १०५ में है।
(१० श्री सूरिपरंपरा (संस्कृत)-"लोकप्रकाश" के ३७ वें सर्ग में कर्ता मे अपनी सूरि परंपरा रूप गणधरवंश का उल्लेख किया है। मैंने इसे वहीं से उद्धत किया है।
(११) पट्टावली सरोद्धार (संस्कृत)-उपा० श्रीरविवर्द्धन रचित इस गन्य में स्वसमयवर्ती गणनायक श्रीविजयरत्नसूरि तक की सूरिपट्टावली अवतरित की है। इसे मैंने वि. घ. ल. ज्ञा० आगरा से लब्ध प्रति से संगृहीत किया है। इसकी अनुपूर्ति में प्रदत्त परंपरा शायद् गन्थकर्ता की गुरुपरंपरा हो, ऐसा प्रतीत होता है। रचनाकाल वि सं १७३६ के करीब है।
(१२) श्री गुरुपट्टावली (संस्कृत)-आगरा के श्रीचिंतामणि जी के भण्डार से पाठपने की श्रीविजयप्रभसूरि तक की पहावली की एक प्रति उपलब्ध हुई है। जिस पर कर्ता का नाम अदृश्य है। कतिपय विशेषता होने से मैंने उसे संगृहीत की है। लेखक ने बाद में जिन नामों की वृद्धि की है, उनका भी अनुपूर्ति में शंयोजन कर दिया है। तथा उनके फुटनोट भी "टिप्पनक" स्वरूप अक्षरशः दे दिये हैं। पिछले भागमें उल्लिखित वर्तमानकाल तक की भट्टारक परंपरा भी अनुपूर्ति में संयोजित करदी है।
(१३) उकेश गच्छीया पट्टावली (संस्कृत)-इसमें भगवान् पार्श्वनाथ से बीसवीं शताब्दी के कवलागच्छ के भट्टारक पर्यत का इतिहास दिया है। गन्थकर्ता के नाम का पता नहीं है। यह पहावली मैंने जैनसाहित्य संशोधक त्रैमासिक से शुद्धाशुद्ध जैसी थी उद्धृत की है।।
इस प्रकार इस प्रथमभाग में १३ पहावलियां, १० अनुपूर्तियां तथा . पावश्यक परिशिष्ठ दिये गये हैं। और यथोचित स्थानों पर विशेष फुटनोट व पाठा. स्तर देने के साथ साथ विद्वानों की सरलता की दृष्टि से इस गन्थ में आये हुए विशेष शब्दों के सात प्रकार के भिन्न भिन्न प्रकारादि अनुक्रम दिये गये हैं इस प्रकार इस ग्रन्थ को यथाशक्य पूर्ण करने की कोशिश की गई है।
इस उपक्रन को समाप्त करने से पूर्व-मैं उन उदार एवं सहदय विद्वद्वरों का नामोल्लेख करना उचित समझता हूँ, जिनकी प्रेमपूर्ण-हार्दिक प्रेणाने इस गन्य को शीत्र तैयार करने में सहायता की है। वे हैं--(१) पटना निवासी श्रीयुत
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