Book Title: Paryushan parva Ek Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 3
________________ पर्युषण (पज्जोसवण) शब्द का अर्थ आयारदशा एवं निशीथ आदि आगम ग्रन्थों में पर्युषण शब्द के मूल प्राकृत रूप पज्जोसवण शब्द का प्रयोग भी अनेक अर्थों में हुआ है। निम्न पंक्तियों में हम उसके इन विभिन्न अर्थों पर विचार करेंगे। श्रमण के दस कल्पों में एक कल्प ‘पज्जोसवणकल्प' है। पज्जोसवणकल्प का अर्थ है - वर्षावास में पालन करने योग्य आचार के विशेष नियम। आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के पज्जोसवणाकप्प नामक अष्ठम अध्याय में साधु-साध्वियों के वर्षावास सम्बन्धी विशेष आचार-नियमों का उल्लेख है। अतः इस सन्दर्भ में पज्जोसवण का अर्थ वर्षावास होता है। • निशीथ में इस शब्द का प्रयोग एक दिन विशेष के अर्थ में हुआ है। उसमें उल्लेख है कि जो भिक्षु ‘पज्जोसवणा' में किंचित्मात्र भी आहार करता है उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इस सन्दर्भ में 'पज्जोसवण' शब्द समग्र वर्षावास का सूचक नहीं हो सकता है, क्योंकि यह असम्भव है कि सभी ध्वियों को चार मास निराहार रहने का आदेश दिया गया हो। अतः इस सम्बन्ध में पज्जोसवण शब्द किसी दिन विशेष का सूचक हो सकता है, समग्र वर्षाकाल का नहीं। • पुनः यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु अपर्युषणकाल में पर्युषण करता है और पर्युषण काल में पर्युषण नहीं करता है, वह दोशी है। यद्यपि यहाँ 'पज्जोसवण' के एक दिन विशेष और वर्षावास दोनों ही अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। फिर भी इस प्रसङ्ग में उसका अर्थ एक दिन विशेष करना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। निशीथ में पज्जोसवण का एक अर्थ वर्षावास के लिए स्थित होना भी है। उसमें यह कहा है कि जो भिक्षु वर्षावास के लिए स्थित (वासावासं पज्जासवियसि) होकर फिर ग्रामानुग्राम विचरण करता है, वह दोष का सेवन करता है। अतः इस सन्दर्भ में पर्युषण का अर्थ वर्षावास बिताने हेतु किसी स्थान पर स्थित रहने का संकल्प कर लेना है अर्थात् अब मैं चार मास तक इसी स्थान पर रहूँगा ऐसा निश्चय कर लेना है। ऐसा लगता है कि पर्युषण वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थिति हो जाने का एक दिन विशेष था-जिस दिन श्रमण संघ को उपवासपूर्वक केशलोच, वार्षिक प्रतिक्रमण (सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) और पज्जोसवणाकप्प का पाठ करना होता था। 4 दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा), संपा0- मुनि कन्हैयालाल, प्रका0-अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, 1960 अध्याय 81 जे भिक्खु पज्जसवणाए इतिरियं पि आहारं आहारेति अहारेंते वा सात्तिज्जति। -निशीथसूत्रम्, संपा0 - मधुकर मुनि, प्रका0 - श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1978, 10/451 'जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवइ पज्जोसवंतं वा साइज्जइ। -निशथीसूत्रम, संपा0 - मधुकर मुनि, प्रका0 - श्री आगम प्रकाशन समिति, स्थावर, 1978, 10/43| 'जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियसि गामाणुगामं दुइज्जइ दुइज्जत वा साइज्जइ-निशीथसूत्रम, संपा0 -मधुकर मुनि, प्रका0 - श्री आगम प्रकाशन समिति, स्थावर 1978, 10/41| Page |3

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