Book Title: Paryavaran ke Pradushan ki Samasya aur Jain Dhrm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 4
________________ ५७८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वर्जित है। अत: वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता प्रयोग न केवल मानवजाति के लिए अपितु समस्त प्राणि-जाति के है और न ही उनका क्रय-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन अस्तित्व के लिए खतरा है । आज शस्त्रों की इस अंधी दौड़ में हम न किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के केवल मानवता की, अपितु इस पृथ्वी पर प्राणी-जगत् की अन्त्येष्ठि हेतु उपयोग के बिना ही अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया चिता तैयार कर रहे है । भगवान महावीर ने इस सत्य को पहले ही है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक हैं और न ही समझ लिया था कि यह दौड़ मानवता की सर्व विनाशक होगी । वांछनीय, क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है आचारांग में उन्होंने कहा-- 'अस्थि सत्यं परेणपरं-नस्थि असत्यं और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी विषयुक्त बनते हैं जो परेणपरं'१० अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं। अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है । निःशस्त्रीकरण का यह आदेश आज कितना सार्थक है यह बतलाना आवश्यक नहीं है । यदि हमें रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता मानवता के अस्तित्व की चिन्ता है तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान - इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है, वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है जिससे लगाना होगा। प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुंचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म में पर्यावरण के संरक्षण सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है वह जितना के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं । उसकी दृष्टि में प्राकृतिक प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्य-वर्द्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या साधनों का असीम दोहन जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल-अवशोषण, कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है । यह तथ्य वायुप्रदूषण, वनों के काटने आदि के कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि मनोकल्पना नहीं है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है । जैनों ने रात्रिभोजन- में आते हैं जिसको जैनधर्म में नरक-गति का कारण बताया गया है। निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण जैनधर्म का संदेश है प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करके नहीं, अपित का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से उनका सहयोगी बनकर जीवन-जीना ही मनुष्य का कर्तव्य है । प्रकृति मुक्त रखना है क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त विजय के नाम पर हमने जो प्रकृति के साथ अन्याय किया है, उसका सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है , पुन: देर रात में दण्ड हमारी सन्तानों को न भुगतना पड़े इसलिए आवश्यक है कि हम किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक रूपेण नहीं होता है। न केवल वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों, अपितु जल, प्राणवायु, जीवन-ऊर्जा (अग्नि) और जीवन-अधिष्ठान (पृथ्वी) के साथ भी सहयोगी बनकर शिकार और मांसाहार जीवन जीना सीखें, उनके संहारक बनकर नहीं, क्योंकि उनका संहार आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है उसमें वन्य प्रकारान्तर से अपना ही संहार है। जीवों और जलीय-जीवों का शिकार भी एक कारण है । आज जलीय जैन आचार्यों की पर्यावरण के प्रति विशेष रूप से वनस्पति जीवों की हिंसा के कारण जल में प्रदूषण बढ़ता है । यह तथ्य सुस्पष्ट जगत के प्रति कितनी सजगता रही है, इसका पता इस तथ्य से चलता है कि मछलियाँ आदि जलीय-जीवों का शिकार जल-प्रदूषण का कारण है कि उन्होंने अपने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक चैत्य-वृक्ष को जोड़ बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पंतग एवं वन्य-जीव भी पर्यावरण दिया और इस प्रकार वे चैत्य-वृक्ष भी जैनों के लिए प्रतीक रूप पूज्य के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार हैं । आज एक ओर वनों के कट जाने बन गये। समवायांगसूत्र के अनुसार तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों की सूची से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, इस प्रकार है१५.. चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य-जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा १. ऋषभ -- न्यग्रोध (वट) १४. अनन्त -- अश्वत्थ (पीपल) है । जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है जबकि वह २. अजित -- सप्तपर्ण १५. धर्म -- दधिपर्ण शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं ३. संभव -- शाल १६. शान्ति -- नन्दीवृक्ष करना जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है । मत्स्य, माँस, अण्डे ४. अभिनन्दन -- प्रियाल १७. कुन्थु -- तिलक एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के संरक्षण के लिए भी ५. सुमति -- प्रियंगु १८. अर -- आम्रवृक्ष प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किये हैं। ६. पद्मप्रभ -- छत्राह १९. मल्ली -- अशोक ७. सुपार्श्व -- शिरीष २०. मुनिसुव्रत -- चम्पक रासायनिक शस्त्रों का प्रयोग ८. चन्द्रप्रभ -- नागवृक्ष २१ नमि -- बकुल आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही ९. पुष्पदन्त -- साली २२. नेमि -- वेत्रसवृक्ष है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी १०. शीतल -- पिलंखुवृक्ष २३. पार्श्व -- धातकीवृक्ष पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है । इनका ११. श्रेयान्स -- तिन्दुक २४. महावीर (वर्धमान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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