Book Title: Paryavaran ke Pradushan ki Samasya aur Jain Dhrm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. भोजनशयनाच्छादन प्रदानादिलक्षणः । सचाल्पतया नात्यन्तिकचैहिकार्य स्याऽपि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पु० ६९७ २०. भावोपकारस्त्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपों गरीय नित्यात्यन्तिक उभयलोक सुखावहश्चेत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम् । अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५ पृ० ६९७ तीव्रता से बढ़ती हुई जनसंख्या और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न आज मानव समाज की एक ज्वलन्त समस्या है क्योंकि प्रदूषित होते हुए पर्यावरण के कारण न केवल मानवजाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्व को भी खतरा उत्पन्न हो गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन के लिये आवश्यक स्रोतों का इतनी तीव्रता से और इतनी अधिक मात्रा में दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही, अगली शताब्दी में पेयजल और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर होगा। यही नहीं, शहरों में शुद्ध प्राणवायु के थैले लगाकर चलना होगा। अतः मानवजाति के भावी अस्तित्व के लिये यह आवश्यक हो गया है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो यह शुभ लक्षण है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने की चेतना आज समाज के सभी वर्गों में जागी है और इसी क्रम में यह विचार भी उभर कर सामने आया है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के ऐसे कौन से निर्देश हैं जिनको उजागर करके पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में मानव समाज के विभिन्न वर्गों की चेतना को जागृत किया जा सके। इस सन्दर्भ में यहाँ मैं जैनधर्म की दृष्टि से ही आप लोगों के समक्ष अपने विचार रखूँगा । यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति संयम, अहिंसा और असंग्रह (अपरिग्रह) पर सर्वाधिक बल दिया गया है। उसके इन्ही मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर जैनधर्म में ऐसे अनेक आचार नियमों का निर्देश हुआ है जिनका परिपालन आज पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये आवश्यक है। जैनधर्म के प्रवर्त्तक आचार्यों ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न केवल प्राणीय जगत् एवं वनस्पति जगत् में जीवन की उपस्थिति है, अपितु उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी, पानी, वायु और अग्नि में भी जीवन हैं। एक ओर तो वे यह मानते थे कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अतः इनके दुरूपयोग, विनाश या हिंसा से उनका भी विनाश होता है। दूसरे ये २१. परमार्थतः पारमेश्वर प्रवचनोपदेश एव तस्येव भवशतोपचित दुःखक्षवक्षमत्वात् आह च नोपकारो जगत्यस्मिंस्तादृशो विद्यते क्वचित् । याशी दुःखविच्छेदाद् देहिनां धर्मदेशना । - अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ । पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म 1 स्वयं भी जीवन हैं क्योंकि इनके अभाव में जीवन की कल्पना भी भ नहीं है। क्या हम जल, वायु, पृथ्वीतत्त्व एवं ऊर्जा (अग्नितत्त्व) के अभाव में जीवन की कोई कल्पना भी कर सकते हैं ? ये तो स्वयं जीवन के अधिष्ठान हैं। अतः इनका दुरूपयोग या विनाश स्वयं जीवन का ही विनाश है। इसीलिये जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा गया है। हिन्दू धर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देव रूप माना गया है, उसका आधार भी इनका जीवन के अधिष्ठान रूप होना ही है जैन परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की यह अवधारणा उपस्थित थी। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और इसकायिक ऐसे षट्जीवनिकायों की चर्चा प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है । आचारांगसूत्र (ई०पू० पांचवी शती) का तो प्रारम्भ ही इन षट्जीवनिकायों के निरूपण से तथा उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा .. से ही होता है। इन षट्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गये हैं। आगे हम उन्हीं की चर्चा करेंगे। यह एक अनुभूत प्राकृतिक तथ्य है, एक जीवन की अभिव्यक्ति और अवस्थिति दूसरे शब्दों में उसका जन्म, विकास और अस्तित्व दूसरे जीवनों के आश्रित है इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं। किन्तु इस सत्य को समझने की जीवन- दृष्टियाँ भिन्न भिन्न रही हैं । एक दृष्टिकोण यह रहा है कि यदि एक जीवन दूसरे जीवन पर आश्रित है तो हमें यह अधिकार है कि हम जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके भी अपने अस्तित्व को बनाये रखें। पूर्व में 'जीवोजीवस्य भोजनम्' और पश्चिम में 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' (Struggle for existence ) के सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्व में आये। इनकी जीवन-दृष्टि हिंसक रही । इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना । आज पूर्व से पश्चिम तक इसी जीवन दृष्टि का बोलबाला है। जीवन के दूसरे रूपों -- -- . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ । का विनाश करके मानव के अस्तित्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं किन्तु अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत विनाश करके हम मानव का अस्तित्व भी नहीं बचा सकते हैं। इस सम्बन्ध में दूसरी जीवन-दृष्टि यह रही कि एक जीवन, जीवन के दूसरे रूपों के सहयोग पर आधारित है -- जैनाचार्यों ने इसी जीवन-दृष्टि का उद्घोष किया था । आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित है। विकास का मार्ग हिंसा या विनाश नहीं परस्पर सहकार है। एक-दूसरे के पारस्परिक सहकार या सहयोग पर जीवन-यात्रा चलती है। जीवन के दूसरे रूपों के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं । प्राणी जगत् पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये दूसरे प्राणियों के सहयोग की और दूसरे प्राणियों को अपना जीवन जीने के लिये हमारे सहयोग को आवश्यकता है। हमें जीवन जीने (भोजन, प्राणवायु आदि) के लिये वनस्पति जगत् की आवश्यकता है तो वनस्पति को अपना जीवन जीने के लिये जल, वायु, खाद आदि की आवश्यकता है। वनस्पति से प्राप्त आक्सीजन, फल, अन्न आदि से हमारा जीवन चलता है तो हमारे द्वारा प्राप्त कार्बनडाई आक्साईड एवं मल-मूत्र आदि से उनका जीवन चलता है अतः जीवन जीने के लिये जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो हम ले सकते हैं किन्तु उनके विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा भी विनाश निहित है । दूसरे की हिंसा वस्तुतः हमारी ही हिंसा है, इसलिये आचारांग में कहा गया था - जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही है -- क्योंकि यह तो तेरे अस्तित्व का आधार है । सहयोग लेना और दूसरों को सहयोग करना यही प्राणी जगत् की आदर्श स्थिति है। जीवन कभी भी दूसरों के सहयोग के बिना नहीं चलता है। जिसे हम दूसरों के सन्दर्भ में अपना अधिकार मानते हैं, वहीं दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य भी है। इसे हमें नहीं भूलना है सर्वत्र जीवन की उपस्थिति की कल्पना, उसके प्रति अहिंसक दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि जैन आचार्यों ने जीवन के विविध रूपों की हिंसा और उनके दुरूपयोग को रोकने हेतु आचार के अनेक विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया। आगे हम जल प्रदूषण, वायुप्रदूषण, खाद्य सामग्री के प्रदूषण से बचने के लिये जैनाचार्यों ने किन आचार नियमों का प्रतिपादन किया है, इसकी चर्चा करेंगे । | जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ जल प्रदूषण और जल संरक्षण जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये एवं उसके सीमित उपयोग के लिये जैन ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं। यद्यपि प्राचीन काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे, जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा में रखा गया है । जैन परम्परा में प्राचीन काल से अवधारणा रही है कि नदी, तालाब, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मलमूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों 1 के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्त्व जल में मिलते हैं, उनसे बहुतायत से जलीय जीवों की हिंसा होती है और जल प्रदूषित होता है। जैन परम्परा में आज भी यह लोकक्ति है कि पानी का उपयोग घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिये । मुझे स्वयं वे दिन याद हैं, जब घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी एक गिलास पानी के गिर जाने पर । आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुएं आदि में प्रवेश करके स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक जल का व्यय नहीं करना आदि उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को हास्यास्पद लगते हों किन्तु भविष्य में जो पीने योग्य पानी का संकट आने वाला है उसे देखते हुए, ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। जैन परम्परा में मुनियों के लिये तो सचित्तजल (जीवन युक्त जल ) के प्रयोग का ही निषेध है। जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी वा अन्य किन्हीं साधनों से जीवाणु रहित हुआ जल ही ग्रहण कर सकता है । सामान्य उपयोग के लिये वह ऐसा जल भी ले सकता है जिसका उपयोग गृहस्थ कर चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो। गृहस्थ उपासक के लिये भी जल के उपयोग से पूर्व उसका छानना और सीमित मात्रा में ही उसका उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छना पानी पीना जैनों के लिए पापाचरण माना गया है। जल को छानना अपने को प्रदूषित जल ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी अनुपम साधन है । जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी उपभोक्ता संस्कृति है । जल का मूल्य हमें इस लिये पता नहीं लगता है, कि प्रथम तो वह प्रकृति का निःशुल्क उपहार है, दूसरे आज नल में टोटी खोलकर हम उसे बिना परश्रम के पा लेते हैं। यदि कुओं से स्वयं जल निकाल कर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग करना हो तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे । चाहे इस युग में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े हों किन्तु जल तो सस्ता ही हुआ है। जल का अपव्यय न हो इसलिये प्रथम आवश्यकता यह है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हों। जहाँ पूर्व काल में जंगल में जाकर मल विसर्जन, दातौन, स्नान आदि किया जाता था, वहाँ जल का कितना कम उपयोग होता था यह किसी से छिपा नहीं है । पुन: वह मल एवं जल भी जंगल के छोटे पौधों के लिये खाद व पानी के रूप में उपयोगी होता था । आज की पाँच सितारा होटलों की संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है। जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी किनारे स्नान करते थे उनका जल का वास्तविक व्यय दो लिटर से अधिक नहीं था और उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था या फिर मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता था किन्तु आज पाँच सितारा होटल में एक व्यक्ति कम से कम पाँच सौ लिटर जल का अपव्यय कर देता है। यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा, यह विचारणीय है। . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म ५७७ वायुप्रदूषण का प्रश्न अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते वायुप्रदूषण के प्रश्न पर भी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट हैं, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् आदि को भी अनुभूति होती है। किन्तु था । यद्यपि प्राचीन काल में वे अनेक साधन जो आज वायुप्रदूषण के जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव कारण बने हैं, नहीं थे मात्र अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न करने वाले करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति व्यवसाय ही थे। धूम्र की अधिक मात्रा न केवल फलदार पेड़-पाधों के आदि अन्य जीव-निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते हैं किन्तु उसे लिये अपितु अन्य प्राणियों और मनुष्यों के लिए किस प्रकार हानिकारक व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते । अत: व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यही है है, यह बात वैज्ञानिक गवेषणाओं और अनुभवों से सिद्ध हो गयी है। कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरूपयोग से बचे । जिस जैन आचार्यों ने उपासकदशासूत्र में जैन गृहस्थों के लिये स्पष्टत: उन प्रकार हमें अपना जीवन-जीने का अधिकार है उसी प्रकार उन्हें भी अपना व्यवसायों का निषेष किया है जिनमें अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न होकर जीवन जीने का अधिकार है । अत: जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी वातावरण को प्रदूषित करता हो । वायुप्रदूषण का एक कारण फलों भी रूप में हो उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है । प्रकृति की दृष्टि आदि को सड़ाकर उनसे शराब आदि मादक पदार्थ बनाने का व्यवसाय में एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य का । भी है जिसका जैन गृहस्थ के लिए निषेध है। वायुप्रदूषण को रोकने और पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, प्रदूषित वायु, सूक्ष्म कीटाणुओं एवं रजकण से बचने के लिये जैनों में उतना मनुष्य नहीं है, वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है । वृक्षों मुख वस्त्रिका बाँधने या रखने की जो परम्परा है, वह इस तथ्य का प्रमाण एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध है कि जैन आचार्य इस सम्बन्ध में कितने सजग थे कि प्रदूषित वायु और में भी प्राचनी जैन साहित्य में अनेक निर्देश हैं । जैन परम्परा में मुनि के कीटाणु शरीर में मुख एवं नासिका के माध्यम से प्रवेश न करें और लिए तो हरित-वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर उसे स्पर्श हमारा दूषित श्वास वायुप्रदूषण न करें । करने का भी निषेध था। गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति पर्यावरण के प्रदूषण में आज धूम्र छोड़ने वाले वाहनों का के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है । आज भी पर्वप्रयोग भी एक प्रमुख कारण है । यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में तिथियों में हरित-वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन यह बात हास्यास्पद लगेगी कि हम पुन: बैलगाड़ी की दिशा में लौट गृहस्थ करते हैं । कंद और मूल का भक्षण जैन-गृहस्थ के लिए निषिद्ध जायें, किन्तु यदि वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना है तो हमें हमारे ही है । इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ों का ही भक्षण नगरों और सड़कों को इस धूम्र प्रदूषण से मुक्त रखने का प्रयास करना करेगा तो पौधों का अस्तित्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन होगा। जैन मुनि के लिये आज भी जो पदयात्रा करने और कोई भी वाहन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार से उस पेड़ को जिसका तना मनुष्य की प्रयोग नहीं करने का नियम है वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण बाँहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना को प्रदूषण से बचाने और मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से वह कितना गया है । गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता । आज की हमारी उपभोक्ता उल्लेख है उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है । आचारांग में वनस्पति संस्कृति में हम एक ओर एक फलांग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि रखते हैं तो दूसरी ओर डाक्टरों के निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात कि.मी. वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान है। इसी प्रकार वनों में आग टहलते हैं । यह कैसी आत्मप्रवंचना है, एक ओर समय की बचत के लगाना, वनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप नाम पर वाहनों का प्रयोग करना तो दूसरी ओर प्रात:कालीन एवं (महारम्भ) माना गया है क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना । यदि मनुष्य है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित मध्यम आकार के शहरों तक अपने दैनान्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग होता है । क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के न करे तो उससे दोहरा लाभ हो । एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च अनुपम साधन हैं। बचें, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बचें । साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अनुकूल रहेगा । प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे कीटनाशकों का प्रयोग परम्परावादी लगती हो किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव आज खेती में जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं अस्तित्व की एक अनिवार्यता होगी । आज भी यू.एस.ए. जैसे विकसित का उपयोग बढ़ता जा रहा है वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण देशों में यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है। का कारण है । जैन परम्परा में गृहस्थ-उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का वनस्पति जगत् और पर्यावरण उपयोग करने की अनुमति नहीं है क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से उद्देश्य पूर्ण हिंसा होती है जो उसके लिए निषिद्ध है । इसी प्रकार गृहस्थ तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त हैं और के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थ का व्यवसाय भी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वर्जित है। अत: वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता प्रयोग न केवल मानवजाति के लिए अपितु समस्त प्राणि-जाति के है और न ही उनका क्रय-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन अस्तित्व के लिए खतरा है । आज शस्त्रों की इस अंधी दौड़ में हम न किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के केवल मानवता की, अपितु इस पृथ्वी पर प्राणी-जगत् की अन्त्येष्ठि हेतु उपयोग के बिना ही अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया चिता तैयार कर रहे है । भगवान महावीर ने इस सत्य को पहले ही है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक हैं और न ही समझ लिया था कि यह दौड़ मानवता की सर्व विनाशक होगी । वांछनीय, क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है आचारांग में उन्होंने कहा-- 'अस्थि सत्यं परेणपरं-नस्थि असत्यं और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी विषयुक्त बनते हैं जो परेणपरं'१० अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं। अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है । निःशस्त्रीकरण का यह आदेश आज कितना सार्थक है यह बतलाना आवश्यक नहीं है । यदि हमें रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता मानवता के अस्तित्व की चिन्ता है तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान - इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है, वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है जिससे लगाना होगा। प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुंचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म में पर्यावरण के संरक्षण सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है वह जितना के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं । उसकी दृष्टि में प्राकृतिक प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्य-वर्द्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या साधनों का असीम दोहन जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल-अवशोषण, कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है । यह तथ्य वायुप्रदूषण, वनों के काटने आदि के कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि मनोकल्पना नहीं है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है । जैनों ने रात्रिभोजन- में आते हैं जिसको जैनधर्म में नरक-गति का कारण बताया गया है। निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण जैनधर्म का संदेश है प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करके नहीं, अपित का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से उनका सहयोगी बनकर जीवन-जीना ही मनुष्य का कर्तव्य है । प्रकृति मुक्त रखना है क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त विजय के नाम पर हमने जो प्रकृति के साथ अन्याय किया है, उसका सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है , पुन: देर रात में दण्ड हमारी सन्तानों को न भुगतना पड़े इसलिए आवश्यक है कि हम किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक रूपेण नहीं होता है। न केवल वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों, अपितु जल, प्राणवायु, जीवन-ऊर्जा (अग्नि) और जीवन-अधिष्ठान (पृथ्वी) के साथ भी सहयोगी बनकर शिकार और मांसाहार जीवन जीना सीखें, उनके संहारक बनकर नहीं, क्योंकि उनका संहार आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है उसमें वन्य प्रकारान्तर से अपना ही संहार है। जीवों और जलीय-जीवों का शिकार भी एक कारण है । आज जलीय जैन आचार्यों की पर्यावरण के प्रति विशेष रूप से वनस्पति जीवों की हिंसा के कारण जल में प्रदूषण बढ़ता है । यह तथ्य सुस्पष्ट जगत के प्रति कितनी सजगता रही है, इसका पता इस तथ्य से चलता है कि मछलियाँ आदि जलीय-जीवों का शिकार जल-प्रदूषण का कारण है कि उन्होंने अपने प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक चैत्य-वृक्ष को जोड़ बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पंतग एवं वन्य-जीव भी पर्यावरण दिया और इस प्रकार वे चैत्य-वृक्ष भी जैनों के लिए प्रतीक रूप पूज्य के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार हैं । आज एक ओर वनों के कट जाने बन गये। समवायांगसूत्र के अनुसार तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों की सूची से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, इस प्रकार है१५.. चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य-जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा १. ऋषभ -- न्यग्रोध (वट) १४. अनन्त -- अश्वत्थ (पीपल) है । जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है जबकि वह २. अजित -- सप्तपर्ण १५. धर्म -- दधिपर्ण शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं ३. संभव -- शाल १६. शान्ति -- नन्दीवृक्ष करना जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है । मत्स्य, माँस, अण्डे ४. अभिनन्दन -- प्रियाल १७. कुन्थु -- तिलक एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के संरक्षण के लिए भी ५. सुमति -- प्रियंगु १८. अर -- आम्रवृक्ष प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किये हैं। ६. पद्मप्रभ -- छत्राह १९. मल्ली -- अशोक ७. सुपार्श्व -- शिरीष २०. मुनिसुव्रत -- चम्पक रासायनिक शस्त्रों का प्रयोग ८. चन्द्रप्रभ -- नागवृक्ष २१ नमि -- बकुल आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही ९. पुष्पदन्त -- साली २२. नेमि -- वेत्रसवृक्ष है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी १०. शीतल -- पिलंखुवृक्ष २३. पार्श्व -- धातकीवृक्ष पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है । इनका ११. श्रेयान्स -- तिन्दुक २४. महावीर (वर्धमान) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म 579 12. वासुपूज्य -- पाटल शालवृक्ष णेवण्णेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे 13. विमल-- जम्बु छज्जीव-णिकाय-सत्यं समारंभते समणुजाणेज्जा / इस प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन परम्परा के अनुसार -आयारो, आचार्य तुलसी, 1/176 प्रत्येक तीर्थकर ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अशोक वृक्ष की छाया में बैठकर 2. से बेमि -- संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा। ही अपना उपदेश देते हैं इससे भी उनकी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति ___-आयारो, आचार्य तुलसी, 1/54 सजगता प्रगट होती है। प्राचीनकाल में जैन मुनियों को वनों में ही रहने 3. देखिये -- आयारो, द्वितीय उद्देशक से सप्तम उद्देशक तक का निर्देश था, फलत: वे प्रकृति के अति निकट होते थे। कालान्तर 4. परस्परोपग्रहो जीवानाम्, तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, 5/21 में जब कुछ जैन मुनि चैत्यों या बस्तियों में रहने लगे तो उनके दो विभाग हो गये -- 5. तुमंसि नाम सच्चेम जं 'हंतत्वं' ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेम जं 'अज्जावेयतव्वं' ति मनसि, 1. चैत्यवासी 2. वनवासी तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परितावेयव्वं' ति मनसि, किन्तु इसमें भी चैत्यवासी की अपेक्षा वनवासी मुनि ही तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परिघेतव्वं' ति मनसि, अधिक आदरणीय बने / जैन परम्परा में वनवास को सदैव ही आदर की तुमंसि नाम सच्चेम जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्त्रसि। दृष्टि से देखा गया। -आयारो, 5/10 इसी प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं 6. वणस्सइजीवाणं माणुस्सेण तुलणा पदं से बेमि -- को एक-दूसरे से पृथक् करने के लिए जिन प्रतीक चिह्नों (लांछनों) का इंमपि जाइधम्मयं, एयपि जाइधम्मयं / प्रयोग किया गया है उनमें भी वन्य जीवों या जल-जीवों को ही इंमपि बुठ्धिम्मयं, एयपि बुधिम्मयं / प्राथमिकता मिली है / यथा -- इंमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं / तीर्थंकर .. लांछन विमल -- वराह इंमपि छिन्नं मिलाति, एयपि छिन्त्रं मिलाति / ऋषभ -- बैल अनन्त -- श्येनपक्षी इंमपि आहारगं एयंपि आहारगं / अजित -- गज अनन्त -- रीछ इंमपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं / सम्भव -- अश्व शान्तिनाथ -- मृग इंमपि असासयं, एयपि असासयं / अभिनन्दन -- कपि कुंथु -- छाग इंमपि चयावचइयं, एयपि चयावचइयं / सुमतिनाथ -- क्रौंच सुव्रत -- कूर्म इंमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं / पुष्पदंत -- मकर पार्श्वनाथ -- सर्प __-आयारो, सं. आचार्य तुलसी, 1/32 वासुपूज्य -- महिष महावीर -- सिंह 7. तं जहा -- इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, इन सभी तथ्यों से यह फलित होता है कि जैन आचार्य प्रकृति फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, और पर्यावरण के प्रति सजग रहे हैं तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार केसवाणिज्जे, जंतपीलंणकम्मे, निल्लेछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सम्बन्धी विधिनिषेध पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में पर्याप्त रूप से सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया / सहायक हैं। -उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, 1/5 8. वही, 1/5 सन्दर्भ 9. से वारिया इत्थि सरायभत्तं / 1. तं परिण्णाय मेहावी व संय छज्जीव-णिकाय-सत्थं -सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकरमुनि, 1/6/379 समारंभेज्जा, 10. समवायांगसूत्र, मधुकरमुनि, परिशिष्ट 646