________________ पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म 579 12. वासुपूज्य -- पाटल शालवृक्ष णेवण्णेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे 13. विमल-- जम्बु छज्जीव-णिकाय-सत्यं समारंभते समणुजाणेज्जा / इस प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन परम्परा के अनुसार -आयारो, आचार्य तुलसी, 1/176 प्रत्येक तीर्थकर ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अशोक वृक्ष की छाया में बैठकर 2. से बेमि -- संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा। ही अपना उपदेश देते हैं इससे भी उनकी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति ___-आयारो, आचार्य तुलसी, 1/54 सजगता प्रगट होती है। प्राचीनकाल में जैन मुनियों को वनों में ही रहने 3. देखिये -- आयारो, द्वितीय उद्देशक से सप्तम उद्देशक तक का निर्देश था, फलत: वे प्रकृति के अति निकट होते थे। कालान्तर 4. परस्परोपग्रहो जीवानाम्, तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, 5/21 में जब कुछ जैन मुनि चैत्यों या बस्तियों में रहने लगे तो उनके दो विभाग हो गये -- 5. तुमंसि नाम सच्चेम जं 'हंतत्वं' ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेम जं 'अज्जावेयतव्वं' ति मनसि, 1. चैत्यवासी 2. वनवासी तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परितावेयव्वं' ति मनसि, किन्तु इसमें भी चैत्यवासी की अपेक्षा वनवासी मुनि ही तुमंसि नाम सच्चेम जं 'परिघेतव्वं' ति मनसि, अधिक आदरणीय बने / जैन परम्परा में वनवास को सदैव ही आदर की तुमंसि नाम सच्चेम जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्त्रसि। दृष्टि से देखा गया। -आयारो, 5/10 इसी प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं 6. वणस्सइजीवाणं माणुस्सेण तुलणा पदं से बेमि -- को एक-दूसरे से पृथक् करने के लिए जिन प्रतीक चिह्नों (लांछनों) का इंमपि जाइधम्मयं, एयपि जाइधम्मयं / प्रयोग किया गया है उनमें भी वन्य जीवों या जल-जीवों को ही इंमपि बुठ्धिम्मयं, एयपि बुधिम्मयं / प्राथमिकता मिली है / यथा -- इंमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं / तीर्थंकर .. लांछन विमल -- वराह इंमपि छिन्नं मिलाति, एयपि छिन्त्रं मिलाति / ऋषभ -- बैल अनन्त -- श्येनपक्षी इंमपि आहारगं एयंपि आहारगं / अजित -- गज अनन्त -- रीछ इंमपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं / सम्भव -- अश्व शान्तिनाथ -- मृग इंमपि असासयं, एयपि असासयं / अभिनन्दन -- कपि कुंथु -- छाग इंमपि चयावचइयं, एयपि चयावचइयं / सुमतिनाथ -- क्रौंच सुव्रत -- कूर्म इंमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं / पुष्पदंत -- मकर पार्श्वनाथ -- सर्प __-आयारो, सं. आचार्य तुलसी, 1/32 वासुपूज्य -- महिष महावीर -- सिंह 7. तं जहा -- इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, इन सभी तथ्यों से यह फलित होता है कि जैन आचार्य प्रकृति फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, और पर्यावरण के प्रति सजग रहे हैं तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार केसवाणिज्जे, जंतपीलंणकम्मे, निल्लेछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सम्बन्धी विधिनिषेध पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में पर्याप्त रूप से सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया / सहायक हैं। -उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, 1/5 8. वही, 1/5 सन्दर्भ 9. से वारिया इत्थि सरायभत्तं / 1. तं परिण्णाय मेहावी व संय छज्जीव-णिकाय-सत्थं -सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकरमुनि, 1/6/379 समारंभेज्जा, 10. समवायांगसूत्र, मधुकरमुनि, परिशिष्ट 646 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org