Book Title: Parigraha ka Swaroop Author(s): Chandanmalmuni Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 2
________________ नव-भेदों में विभक्त किया गया है। जैसे क्षेत्र-वास्तु, वैसे मुर्छा बेहोशी को भी कहते हैं / यथार्थतः अज्ञानी हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, और कुंभी मूच्छित ही है, बेहोश ही है जो पर द्रव्य को स्व द्रव्य धातु नववा परिग्रह है जो बाह्य मंड-कुण्ड, माचे- मानता है। उनके लाभ-अलाभ में सुख-दुःख का अनुभव ढोलिये, आदि विविध प्रकार से गह सामान से संबद्ध करता है / मूर्छा ही ज्ञानावरणीयादि धन घातिक कों है। इस प्रकार यह एक परिग्रह की श्रखला बन जाती का उपादान बनती है, अतः उपर्युक्त कर्म परिग्रह, है। इन सभी का यदि संग्रहीत रूप एक ही शब्द में शरीर परिग्रह एवं मण्डोपकरण परिग्रह मूर्छा का ही कहा जाय तो दशवकालिक सूत्र का वह पद बहुत महत्व- विस्तार है / इस लिये मूर्छा का त्याग ही सर्वोत्कृष्ट पूर्ण है / जैसे "मुच्छा परिग्गहो बुत्तो'। इसी का अनूदित है। बाह्य पदार्थों का त्याग चाहे कितना ही करो, पर रूप वाचक मुख्य उपास्वाति ने तत्वार्थ सत्र में लिखा है शरीर को तो आयुष्यावधि नहीं त्याग सकते। शरीर कि "मुर्छा परिग्रहः" / यह बहुत तात्विक एवं गम्भीर का त्याग हो भी जाय फिर भी तैजस कार्मणयुक्त व्याख्या है। वस्तुतः वस्तु परिग्रह नहीं, मूर्छा ही शरीर तो सागामी बने ही रहते हैं। इसी विषय को परिग्रह है। वस्तु तो अपने स्वरूप में उपस्थित है, वह स्पष्ट करते हुए विद्वद्वर श्री मोहन विजय लिखते हैंपरिग्रह और अपरिग्रह क्या ? उससे सम्बद्ध हमारी "बाहर क्रिया कलाप थी निर्मल न भयो कोय / " .. आसक्ति ममता ही परिग्रह है / जिमि विष धर कंचली तजे, निज निविष नहीं होय / ___ एक व्यक्ति ने पशुओं के मेले में से गौ खरीदी / कंचुली के त्याग से साँप निविष थोड़े ही बन जाता उसके मुह पर बंधे हुए रस्से को अपने हाथ में लपेट है। कंचुली तो ऊपर की आवरण है विष तो उसकी कर वह गौ को खींचता हुआ ले जा रहा था। एक दाड़ में विद्यमान है। वैसे ही बाह्य त्याग से आंतरिक महात्मा मार्ग में मिले / उन्होंने उस ब्यक्ति से सवाल शुद्धि कैसे हो सकती है ! इस भाव को लेकर सन्त किया-"तू गौ से बँधा हुआ है या गौ तेरे से बँधी कवीर की साखी करारी चोट करती है उस व्यक्ति ने कहा-"यह तो स्पष्ट ही है कि गौ बांबी कुटे बांपड़ा, सांप न मरयो जाय / बांबी तो खावै नहीं, सांप जगत को खाय // मेरे से बँधी है।" अज्ञानी बेचारे साँप की बांबी को रोष करके पीटते ___ महात्मा ने कहा-"नहीं, तू गौ से बँधा है / ". व्यक्ति ने कहा-“कैसे ?" है। पर सांप को मार नहीं सकते / अरे ! बांबी किसी को डसती नहीं, डंसने वाला तो सांप है / फिर बांबी महात्मा ने कहा-“यदि रस्सा तुड़ाकर गौ दौड़ पर रोष करने से क्या लाभ? जाए तो तू गौ के पीछे दौड़ेगा या गौ तेरे पीछे ?" आज बैज्ञानिक युग है। प्रत्येक व्यक्ति चिन्तनशील प्रत्युत्तर में उसने कहा-"महाराज ! मैं गौ के पीछे है। भगवान महावीर ने निश्चय और व्यवहार, ज्ञान दौडगा / क्योंकि गौ मेरी है न / " और क्रिया, वाह य और आभ्यन्तर दोनों पक्षों को स्मित मुद्रा में महात्मा ने कहा-"फिर तू कैसे स्वीकार किया है। अतः मूर्छात्याग के द्वारा ही सही कहता है कि गौ तेरे से बँधी है ? वास्तव में तू ही गौ से रूप से अपरिग्रहवृत्ति अपनाना आज की समस्या का बँधा हुआ है" / वस्तु परिग्रह नहीं, हम वस्तु से मप्रत्व हल है / के कारण परिगृहीत हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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