Book Title: Parigraha ka Swaroop Author(s): Chandanmalmuni Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 1
________________ परिग्रह का स्वरूप ऊं ही अहं नमः परिग्रह का यदि निरुक्त किया जाय तो "परि-समन्तात् गहयते ---बध्यते प्राणी अनेन इति परिग्रह; "जिसके द्वारा प्राणी चारों ओर से पकड़ा जाता है, जकड़न में आता है। निगृहीत होता है उसे परिग्रह कहा जाता है ।" व्यावहारिक दृष्टि से बाह्य वस्तुओं को आप लोग परिग्रह मानते हैं । उन्हें त्यागनेवाला अपरिग्रही की कोटि में आ जाता है, परन्तु भगवान महावीर की पैनी दृष्टि बहुत गहराई तक पहुँचती है, मूल को पकड़ती है और कारणों को लक्षित करके नण्य दिशा देती है । वे परिग्रह को तीन भागों में विभक्त करते हैं: 1- कर्म परिग्रह, 2-शरीर परिग्रह और 3-बाह्यमण्डोपकरण परिग्रह । मुनि श्री चन्दनमल जी कर्म परिग्रह से ज्ञानावरणीयादि जो पाप पुण्य के कारण हैं उनको ग्रहण किया गया है । संसार में आत्मा को बांधनेवाले वास्तव में पुण्य-पाप ही हैं। क्योकि पुण्य-पाप का समूल नाश ही तो मोक्ष है । यद्यपि पुण्य सोने की सांकल है और पाप लोहे की, पर है तो साँकल ही । चलते समय दोनों ही अवरोध पैदा करती हैं । पिंजड़ा चाहे सोने का हो या लोहे का, पक्षी को उड़ने न देने में तो दोनों समान ही हैं। जब तक एण्य-पाप का अस्तित्व रहेगा तब तक भव-बंधन से आत्मा छुट नहीं सकती और बार-बार नव-नव शरीर को धारण करती रहेगी। इस पहले कारण का कार्य ही दूसरा 'शरोर परिग्रह" है जो ममत्व का भीषण हेतु और देहाध्यास का प्रबल साधन है। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है कि--'मल संसार वक्षस्य देह एकात्मधीस्तत: "ससार वृक्ष का मूल देहाध्यास ही है। यथार्थ में देखा जाय तो सारा संसार देह का ही फैलाव है। सर्वप्रथम बच्चे के माता-पिता देह के सम्बन्ध से ही बनते हैं। छोटे-बड़े, भाई. बहन भी इसी के कारण कहलाते हैं । पश्चात् संयोग में स्त्री भी देह से ही सम्बन्धित है । फिर पूत्र-पुत्रियां, पोते-परपोते भी इसी का विस्तार हैं। शरीर के सुख में, सुख और शरीर के दुःख में, दुःख प्रति समय अज्ञानी मानता रहता है। शरीर को खिलाने-पिलाने, नहलाने-धुलाने में कितना समय व्यतीत होता है। इस शरीर की परि-तृप्ति के लिये ही फिर तीसरा मण्डोपकरण परिग्रह का व्याख्यान हुआ है। इसकी सुख-सुविधा के लिये ही धन-धान्यादिक की चाह है, उद्यान क्षेत्र गहादिक की अपेक्षा है। इसकी सुरक्षा के लिये ही सदीं-गर्मी के नये-नये परिधानों की लिप्सा है। इसे सजाने के लिये ही तो रत्नादि आभूषणों का आकर्षण है । इसलिये इन बाह्य वस्तुओं को परिग्रह की संज्ञा मिली है। यह बाह्य परिग्रह फिर ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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