Book Title: Panna Samikkhae Dhammam Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ प्रस्तुत संदर्भ में मेरा भी एक श्लोक है, जिसका अभिप्राय है कि शास्त्रों को अच्छी तरह स्पष्टतया चिन्तन करके ही ग्रहण करना चाहिए। चिन्तन के द्वारा ही शास्त्र शिवत्व की उपलब्धि का हेतु होता है। चिन्तन के अभाव में केवल शब्द प्रधान शास्त्र शिव नहीं, शव ही रह जाता है। शव अर्थात मत, मुर्दा। मत को चिपटाये रहने से अन्ततः जीवित भी मृत ही हो जाता है। मृत की उपासना में प्राणवान उर्जा कैसे प्राप्त हो सकती है ? "शास्त्रं सुचिन्तितं ग्राह्य, चिन्तनाद्धि शिवायते । अन्यथा केवलं शब्द-प्रधानं तु शवायते ॥" भारतीय-चिन्तन की चिन्तन-धारा में प्रज्ञावाद का नाद अनुगुंजित है। बौद्ध-साहित्य में तो प्रज्ञा-पारमिता का विस्तार से वर्णन है ही। जब तक प्रज्ञापारमिता को नहीं प्राप्त कर लेता है, तब तक वह बद्धत्व को नहीं प्राप्त हो सकता। जन-संस्कृति में भी प्रज्ञा पर ही अनेक स्थानों में महत्त्वपूर्ण बल दिया गया है। स्वयं भगवान् महावीर के लिए भी प्रज्ञा के विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं। बहुत दूर न जाएँ, तो सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वीरथुई नामक अध्ययन हमारे समक्ष है। उसमें गणधर सुधर्मा कहते हैं से भूईपन्ने---वे महान् प्रज्ञावाले हैं। कासव आसुपन्ने--महावीर साक्षात् सत्य के द्रष्टा आसुप्रज्ञावाले हैं। से पन्नया अक्खय सागरे वा--वे प्रज्ञा से अक्षय सागर के समान है। अन्यत्र भी पागम साहित्य में प्रज्ञा शब्द का प्रयोग निर्मल ज्ञान-चेतना के लिए प्रयुक्त है। यह प्रज्ञा किसी शास्त्र आदि के आधार पर निर्मित नहीं होती है। यह ज्ञानावरण कर्म के क्षय या क्षमोपशम से अन्तःस्फुरित ज्ञान-ज्योति होती है। - वस्तुतः इसी के द्वारा सत्य का साक्षात्कार होता है। इसके अभाव में कैसा भी कोई गुरु हो, और कैसा भी कोई शास्त्र हो, कुछ नहीं कर सकता। इसीलिए भारत का साधक निरन्तर--'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रार्थना सूत्र की रट लगाए रहता है । अज्ञान ही तमस् है और तमस् ही मृत्यु है। बुद्ध इसे प्रमाद शब्द के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। कहते हैं-प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है "अप्पमानो अमतपदं, पमानो मच्चुनो पदं ।"--धम्मपद, २, १. यह अप्रमाद क्या है ? प्रमाद का अभाव होकर जब प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होती है, तब अप्रमाद की भूमिका प्राप्त होती है। और, इसी में साधक अमृतत्व की उपलब्धि करता है। ___भारतीय धर्म और दर्शन में ऋषि शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है। स्वयं भगवान् महावीर को भी परम महर्षि कहा गया है "अणुत्तरग्गं परमं महेसी।"---सूत्रकृतांग, १, ६, १७. अन्यत्र भी अनेक प्रज्ञावान मुनियों के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग हुआ है। हरिके शबल मुनि की स्तुति करते हुए कहा गया "महप्पसाया इसिणो हवन्ति ।"--उत्तराध्ययन, १२, ३१. आप जानते हैं, ऋषि शब्द का क्या अर्थ है ? ऋषि शब्द का अर्थ है--सत्य का साक्षात्-द्रष्टा । ऋषि सत्य का श्रोता कदापि नहीं होता, प्रत्युत् अपने अन्तःस्फूर्त प्रज्ञा के पन्ना समिक्खए धम्म ३१७ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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