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पन्ना समिक्खए धम्म धर्म शब्द जितना अधिक व्यापक स्तर पर प्रचलित है और उसका उपयोग किया जा रहा है, उतनी ही उसकी सूक्ष्मत्तर विवेचना नहीं की जा रही है। इस दिशा में उचित प्रयत्न जो अपेक्षित हैं, वे नहीं के बराबर है। और जो कुछ हैं भी, वे मानव चेतना को कभीकभी धुंधलके में डाल देते हैं।
धर्म क्या है ? इसका पत्ता हम प्रायः विभिन्न मत-पंथों, उनके प्रचारक गुरुओं एवं तत्तत् शास्त्रों से लगाते हैं। और, आप जानते हैं, मत-पंथों की राह एक नहीं है। अनेक प्रकार के एक-दूसरे के सर्वथा विरुद्ध क्रिया काण्डों के नियमोपनियमों में उलझे हुए हैं, ये सब । इस स्थिति में किसे ठीक माना जाए, और किसे गलत? धर्म गुरुओं एवं शास्त्रों की आवाजें भी अलग-अलग है। एक गुरु कुछ कहता है, तो दूसरा गुरु कुछ और ही कह
त्र, जिसका विधान करता है, दूसरा शास्त्र उसका निषेध कर देता है। इस स्थिति में विधि-निषेध के विचिन चक्रवात में मानव-मस्तिष्क अपना होश खो बैठता है। वह निर्णय करे, तो क्या करे ? यह स्थिति आज की ही नहीं, काफी पुरातन काल से चली आ रही है। महाभारतकार कहता है--श्रुति अर्थात् वेद भिन्न-भिन्न है। स्मृतियों की भी ध्वनि एक नहीं है। कोई एक मुनि भी ऐसा नहीं है, जिसे प्रमाण रूप में सब लोग मान्यता दे सकें। धर्म का तत्त्व एक तरह से अंधेरी गुफा में छिप गया है--
"श्रुतिविभिन्ना - स्मृत्यौविभिन्नाः, नैकोमुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् । विश्व जगत् में यत्र-तन अनेक उपद्रव, विरोध, संघर्ष, यहाँ तक कि नर-संहार भी प्रतीत के इतिहास में देखते हैं । आज भी इन्सान का खून बेदर्दी से बहाया जा रहा है । अतः धर्म-तत्त्व की समस्या का समाधान कहाँ है, इस पर कुछ-न-कुछ चिन्तन करना आवश्यक है।
मानव, धरती पर के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उससे बढ़कर अन्य कोन श्रेष्ठतर प्राणी है ? स्पष्ट है, कोई नहीं है। चिन्तन-मनन करके यथोचित निर्णय पर पहुँचने के लिए उसके पास जैसा मन-मस्तिष्क है, वैसा धरती पर के किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मानव अपनी विकास-यात्रा में कितनी दूर तक और ऊँचाइयों तक पहुँच गया है, यह आज सबके सामने प्रत्यक्ष है। कोई स्वप्न या कहानी नहीं है। आज मानव ऊपर चन्द्रलोक पर विचरण कर रहा है और नीचे महासागरों के तल को छ रहा है। एकएक परमाणु की खोज जारी है। यह सब किसी शास्त्र या गुरु के आधार पर नहीं हुआ है। इसका मूल मनुष्य के मन की चिन्तन-यात्रा में ही है। अतः धर्म-तत्त्व की खोज भी इधरउधर से हट कर मानव-मस्तिष्क के अपने मुक्त चिन्तन पर ही आ खड़ी होती है।
यह मैं नई बात नहीं कह रहा हूँ। आज से अढ़ाई हजार वर्ष से भी कहीं अधिक पहले श्रावस्ती की महत्ती सभा में दो महान् ज्ञानी मुनियों का एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। मुनि हैं—केशी और गौतम । मैं देखता है कि उक्त संवाद में कहीं पर भी अपने-अपने शास्ता एवं शास्त्रों को निर्णय के हेतु बीच में नहीं लाया गया है। सब निर्णय प्रज्ञा के आधार पर हया है।
वहाँ स्पष्ट उल्लेख है, जो गौतम के द्वारा उपदिष्ट है कि प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म की
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समीक्षा होनी चाहिए। सूत्र है--"पन्ना समिक्खए धम्मम्' अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा करने में समर्थ है। और, धर्म है भी क्या ? तत्त्व का अर्थात् सत्यार्थ का विशिष्ट निश्चय ही धर्म है। और यह विनिश्चय अन्ततः मानव की प्रज्ञा पर ही आधारित है। शास्त्र और गुरु संभवतः कुछ सीमा तक योग दे सकते हैं। किन्तु, सत्य की आखिर मंजिल पर पहुँचने के लिए तो अपनी प्रज्ञा ही साथ देती है। 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट, उत्तम, निर्मल और 'ज्ञा' अर्थात् ज्ञान।
__जब मानव की चेतना पक्ष-मुक्त होकर इधर-उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर सत्याभिलक्षी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य ही, धर्म-तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है। यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है। ऋत् अर्थात् सत्य को वहन करने वाली शद्ध ज्ञान-चेतना। योग दर्शनकार पतञ्जलि ने इसी संदर्भ में एक सूत्र उपस्थित किया है--"ऋतंभरा तन्न प्रज्ञा", १, ४८. उक्त सूत्र की व्याख्या भोजवृत्ति में इस प्रकार है---
"ऋतं सत्यं विभत्ति कदाचिदपि न विपर्ययेणाऽच्छाद्यते सा ऋतंभरा प्रज्ञा
तस्मिन्सति भवतीत्यर्थः।" अर्थात् जो कभी भी विपर्यय से आच्छादित न हो, वह सत्य को धारणा करने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा होती है।
माना कि साधारण मानव की प्रज्ञा की भी एक सीमा है। वह असीम और अनन्त नहीं है। फिर भी उसके बिना यथार्थ सत्य के निर्णय का अन्य कोई प्राधार भी तो नहीं है। अन्य जितने प्राधार है, वे तो सूने जंगल में भटकाने जैसे हैं और परस्पर टकराने वाले हैं। अतः जहाँ तक हो सके अपनी प्रज्ञा के बल पर ही निर्णय को आधारित रखना चाहिए। अन्तिम प्रकाश उसी से मिलेगा। शास्त्रों से भी निर्णय करेंगे, तब भी प्रज्ञा की अपेक्षा तो रहेगी ही। बिना प्रज्ञा के शास्त्र मूक हैं ? वे स्वयं क्या करेंगे? इस सम्बन्ध में एक प्राचीन मनीषी ने कहा है--"जिस व्यक्ति को अपनी स्वयं की प्रज्ञा नहीं है, उसके लिए शास्त्र भी व्यर्थ है। शास्त्र उसका क्या मार्ग-दर्शन कर सकता है ? अन्धा व्यक्ति यदि अच्छासे-अच्छा दर्पण लेकर अपना मुख-मण्डल देखना चाहे, तो क्या वह देख सकता
"यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ॥" शास्त्र के लिए प्राकृत में 'सुत्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके संस्कृत रूपान्तर अनेक प्रकार के हैं, उनमें सुत्त शब्द का एक संस्कृत रूपान्तर सुप्त भी होता है। यह रूपान्तर अच्छी तरह विचारणीय है। सुत्तं अर्थात् सुप्त है, यानी सोया हुआ है। सोया हुमा कार्यकारी नहीं होता है। उसके भाव को एवं परमार्थ को जगाना होता है। और, वह जागता है, चिन्तन एवं मनन से अर्थात मानव की प्रज्ञा ही उस सुप्त शास्त्र को जगाती है। उसके अभाव में वह केवल शब्द है, और कुछ भी नहीं। अतः प्राचीन विचारकों ने शास्त्र के साथ भी तर्क को संयोजित किया है। संयोजित ही नहीं, तर्क को प्रधानता दी गई है। प्राचीन मनीषी कहते हैं कि, जो चिन्तक तर्क से अनुसंधान करता है, वही धर्म के तत्त्व को जान सकता है, अन्य नहीं । युक्ति-हीन विचार से तो धर्म की हानि ही होती है।
"यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्म वेदनेत्तरः।
युक्तिहीन विचारे तु, धर्महानिः प्रजायते ॥" १. उत्तराध्ययन, २३, २५. २. धम्म तत्त विणिच्छ्यं ।--उत्तराध्ययन, २३, २५. ३. सुत्तं तु सुतमेव उ। --अर्थन प्रबोधितं सुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्या सुतं ।
-बृहत्कल्प भाष्य एवं टीका, ३०६
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प्रस्तुत संदर्भ में मेरा भी एक श्लोक है, जिसका अभिप्राय है कि शास्त्रों को अच्छी तरह स्पष्टतया चिन्तन करके ही ग्रहण करना चाहिए। चिन्तन के द्वारा ही शास्त्र शिवत्व की उपलब्धि का हेतु होता है। चिन्तन के अभाव में केवल शब्द प्रधान शास्त्र शिव नहीं, शव ही रह जाता है। शव अर्थात मत, मुर्दा। मत को चिपटाये रहने से अन्ततः जीवित भी मृत ही हो जाता है। मृत की उपासना में प्राणवान उर्जा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
"शास्त्रं सुचिन्तितं ग्राह्य, चिन्तनाद्धि शिवायते । अन्यथा केवलं शब्द-प्रधानं तु शवायते ॥"
भारतीय-चिन्तन की चिन्तन-धारा में प्रज्ञावाद का नाद अनुगुंजित है। बौद्ध-साहित्य में तो प्रज्ञा-पारमिता का विस्तार से वर्णन है ही। जब तक प्रज्ञापारमिता को नहीं प्राप्त कर लेता है, तब तक वह बद्धत्व को नहीं प्राप्त हो सकता। जन-संस्कृति में भी प्रज्ञा पर ही अनेक स्थानों में महत्त्वपूर्ण बल दिया गया है। स्वयं भगवान् महावीर के लिए भी प्रज्ञा के विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं। बहुत दूर न जाएँ, तो सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वीरथुई नामक अध्ययन हमारे समक्ष है। उसमें गणधर सुधर्मा कहते हैं
से भूईपन्ने---वे महान् प्रज्ञावाले हैं। कासव आसुपन्ने--महावीर साक्षात् सत्य के द्रष्टा आसुप्रज्ञावाले हैं। से पन्नया अक्खय सागरे वा--वे प्रज्ञा से अक्षय सागर के समान है।
अन्यत्र भी पागम साहित्य में प्रज्ञा शब्द का प्रयोग निर्मल ज्ञान-चेतना के लिए प्रयुक्त है। यह प्रज्ञा किसी शास्त्र आदि के आधार पर निर्मित नहीं होती है। यह ज्ञानावरण कर्म के क्षय या क्षमोपशम से अन्तःस्फुरित ज्ञान-ज्योति होती है। - वस्तुतः इसी के द्वारा सत्य का साक्षात्कार होता है। इसके अभाव में कैसा भी कोई गुरु हो, और कैसा भी कोई शास्त्र हो, कुछ नहीं कर सकता। इसीलिए भारत का साधक निरन्तर--'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रार्थना सूत्र की रट लगाए रहता है । अज्ञान ही तमस् है और तमस् ही मृत्यु है। बुद्ध इसे प्रमाद शब्द के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। कहते हैं-प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है
"अप्पमानो अमतपदं, पमानो मच्चुनो पदं ।"--धम्मपद, २, १.
यह अप्रमाद क्या है ? प्रमाद का अभाव होकर जब प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होती है, तब अप्रमाद की भूमिका प्राप्त होती है। और, इसी में साधक अमृतत्व की उपलब्धि करता है।
___भारतीय धर्म और दर्शन में ऋषि शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है। स्वयं भगवान् महावीर को भी परम महर्षि कहा गया है
"अणुत्तरग्गं परमं महेसी।"---सूत्रकृतांग, १, ६, १७.
अन्यत्र भी अनेक प्रज्ञावान मुनियों के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग हुआ है। हरिके शबल मुनि की स्तुति करते हुए कहा गया
"महप्पसाया इसिणो हवन्ति ।"--उत्तराध्ययन, १२, ३१. आप जानते हैं, ऋषि शब्द का क्या अर्थ है ? ऋषि शब्द का अर्थ है--सत्य का साक्षात्-द्रष्टा । ऋषि सत्य का श्रोता कदापि नहीं होता, प्रत्युत् अपने अन्तःस्फूर्त प्रज्ञा के पन्ना समिक्खए धम्म
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सत
द्वारा सत्य का द्रष्टा होता है। कोष-साहित्य में ऋषि का अर्थ यही किया गया है। वह अन्तःस्फूर्त कवि, मुनि, मन्त्र-द्रष्टा और प्रकाश की किरण है । कवि शब्द का अर्थ काव्य का रचयिता ही नहीं, अपितु ईश्वर-भगवान् भी होता है। इस संबंध में इशोपनिषद् कहता है--
"कविर्मनीषिपरिभूः स्वयंभू" उक्त विवेचन का सार यही है कि सत्य की उपलब्धि के लिए मानव की अपनी स्वयं की प्रज्ञा ही हेतु है। प्रज्ञा के अभाव में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व धर्म प्रादि सब तमसाच्छन्न हो जाते हैं। और इसी तमसाच्छन्न स्थिति में से अन्ध-मान्यताएँ एवं अन्ध-विश्वास जन्म लेते हैं, जो अन्ततः मानव-जाति की सर्वोत्कृष्टता के सर्वस्व संहारक हो जाते हैं।
अतीत के इतिहास में जब हम पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि प्रज्ञा के अभाव में मानव ने कितने भयंकर अनर्थ किए हैं। हजारों ही नहीं, लाखों महिलाएं, पति की मृत्यु पर पतिव्रता एवं सतीत्व की गरिमा के नाम पर पति के शव के साथ जीवित जला दी गई हैं। आज के सधारशील.यग में यदा-कदा उक्त घटनाएँ समाचार पत्नों के पष्ठों पर मा जाती हैं। यह कितना भयंकर हत्याकाण्ड है, जो धर्म एवं शास्त्रों के नाम पर होता आ रहा है।
देवी-देवताओं की प्रस्तर मूर्तियों के आगे मूक-पशुओं के बलिदान की प्रथा भी धार्मिक परम्पराओं के नाम पर चालू है। एक-एक दिन में देवी के आगे सात-सात हजार बकरे काट दिए जाते है। और हजारों नर-नारी, बच्चे, बुड्ढे, नौजवान हर्षोल्लास से नाचते-गाते हैं एवं देवी के नाम की जय-जयकार करते हैं। लगता है कि मानव के रूप में कोई दानवों का मेला लगा है। विचार-चर्चा करें और विरोध में स्वर उठाएँ, तो झटपट कोई शास्त्र लाकर सामने खड़ा कर दिया जाता है। और, पण्डे-पूरोहित धर्म-ध्वंस की दुहाई देने ल हैं। पशु ही क्यों, सामूहिक नरबलि तक के इतिहास की ये काली घटनाएँ हमें भारतीय इतिहास में मिल जाती हैं और आज भी मासूम बच्चों के सिर काट कर देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि के रूप में अर्पित कर दिए जाते हैं।
अन्ध-विश्वासों की परम्परा की कथा बड़ी लम्बी है। कहीं ग्रामीण महिलाएं सर्वथा नग्न होकर वर्षा के लिए खेतों में हल जोतने का अभिनय करती है। और, कहीं पर पशुबलि एवं नरबलि तक इसके लिए दे दी जाती है।
प्रज्ञा-हीन धर्म के चक्कर में भ्रमित होकर लोगों ने आत्मपीडन का कष्ट भी कम नहीं उठाया है। वस्त्रहीन नग्न होकर हिमालय में रहते हैं। जेठ की भयंकर गर्मी में चारों ओर धूनी लगाते हैं। कांटे बिछाकर सोते हैं। जीवित ही मुक्ति के हेतु गंगा में कूद कर आत्महत्या कर लेते हैं। और, कुछ लोग तो जीवित ही भूमि में समाधि लेकर मृत्यु का वरण भी करते हैं। और, कुछ आत्म-दाह करने वाले भी कम नहीं है। लगता है, मनुष्य आँखों के होते हुए भी अंधा हो गया है।
धर्म-रक्षा के नाम पर वह कुछ भी कर सकता है या उससे कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म और गुरुत्रों के नाम पर ऐसा भयंकर शहीदो जनून सवार होता है कि अपने से भिन्न धर्म-परम्परा के निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या तक करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। यह सब उपद्रव देव-मूढ़ता, मुरु-मूढ़ता तथा शास्त्र-मूढ़ता के कारण होते हैं। प्रज्ञा ही, उक्त मूढ़ताओं को दूर कर सकती है। किन्तु, धर्म के भ्रम में उसने अपना या समाज का भला-बुरा सोचने से इन्कार कर दिया है।
अतः अपेक्षा है, प्रज्ञा की अन्तर्-ज्योति को प्रज्वलित करने की। बिना ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुए, यह भ्रम का सघन अन्धकार कथमपि दूर नहीं हो सकता। अतः अनेक भारत के प्रबुद्ध मभीषियों ने ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित करने के लिए प्रवल प्रेरणा दी है। श्री कृष्ण तो कहते हैं-ज्ञान से बढ़कर विश्व में अन्य कुछ भी पवित्न नहीं है--
"न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।"
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________________ अज्ञान तमस को नष्ट करने के लिए ज्ञान की अग्नि ही सक्षम है। श्री कृष्ण और भी बल देकर कहते हैं-“हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ समूह को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है "यथवघांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरतेऽर्जुनः। ज्ञानाग्निः सर्व-कर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा // " -गीता, 4, 37 उपनिषद्-साहित्य में सर्वप्रथम मौलिक स्थान ईशोपनिषद् का है। यह उपनिषद् यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसका एक सूत्र वचन है--विद्यायामृतमश्नुते' अर्थात् विद्या से ही अमृत-तत्त्व की उपलब्धि होती है। तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर ने भी ज्ञान-ज्योति पर ही अत्यधिक बल दिया है। मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने अन्य किसी बाह्य क्रियाकाण्ड विशेष की चर्चा न करके मुनित्व के लिए सम्यक्-ज्ञान की ही हेतुता को स्वीकृत किया है नाणेण य मुणी होइ ।---उत्तराध्ययन, 25, 32. श्रमण आवश्यक सूत्र में एक पाठ है, जो हर भिक्षु को सुबह-सायं प्रतिक्रमण के समय उपयोग में लाना होता है। वह पाठ है-- "मिच्छत्तं परियाणामि सम्मतं उवसंपज्जामि / प्रबोहि परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि / अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि।" पाठ लम्बा है। उसमें का कुछ अंश ही यहाँ उद्धृत किया गया है। इसका भावार्थ है-“मैं मिथ्यात्व का परित्याग करता हूँ और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ। मैं अबोधि का त्याग करता हूँ और बोधि को स्वीकार करता हूँ। मैं अज्ञान का त्याग करता हूँ और सम्यक्-ज्ञान को स्वीकार करता हूँ।" कितने उदात्त वचन है ये। काश, यदि हम इन वचनों पर चलें, तो फिर धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्डों के भ्रम का अंधेरा मानव-मस्तिष्क को कैसे भ्रान्त कर सकता है ? अपेक्षा है, आज प्रज्ञावाद के पुनः प्रतिष्ठा की। जन-चेतना में प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होते ही, जाति, पंथ तथा राष्ट्र के नाम पर आए दिन होने वाले उग्रवादी या आतंकवादी जैसे उपद्रवों के काले बादल सहसा छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। और, मानव अपने को मानव के रूप में पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। मृत होती हुई मानवता को जीवित रखने के लिए स्वतन्त्र चिन्तन के रूप में प्रज्ञा की ऊर्जा ही काम दे सकती है "नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational