Book Title: Pani Sachit aur Achit Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 2
________________ साधु-साध्वी समुदाय में अब तीन बार उबला हुआ अचित्त पानी ही लिय जाता है । जिसे पक्का पानी भी कहा जाता है । जबकि सभ्य संस्कृत भा में उसे अचित्त पानी और शास्त्रीय परिभाषा में इसे प्रासुक पानी कहा जा __कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं कि हौज में इकट्ठा किया हुआ बारि का मीठा पानी, कुँए का खारा पानी, नगरपालिका/ ग्रामपंचायत आदि द्वार वितरित क्लोरिनयुक्त पानी, शुद्ध किया हुआ गंगाजल, खनिज जल गंधकयुक्त कुंडों का गर्म पानी आदि सभी प्रकार के पानी को अचित्त कर के लिये क्या एक ही पदार्थ भस्म या चूना है वे मानते हैं कि भिन्न भि प्रकार के पानी को अचित्त करने के लिये भिन्न भिन्न पदार्थ होने चाहि किन्तु यह उनका भ्रम है । _शास्त्र में सचित्त पृथ्वी, पानी आदि को अचित्त करने की दो प्रकार प्रक्रियायें बतायी गई हैं | जब एक प्रकार की सचित्त मिट्टी दूसरे प्रको की सचित्त मिट्टी के संपर्क में आती है तब दोनों प्रकार की मिट्टी अदि हो जाती है । दोनों प्रकार की मिट्टी एक दूसरे के लिये स्वकायशस बनती है और जब मिट्टी में पानी डाला जाता है तब वही मिट्टी व पान परस्पर परकायशस्त्र बनकर एक दूसरे को अचित्त करते हैं । यहाँ भर्स वनस्पतिकाय या पृथ्वीकाय है, जबकि चूना पृथ्वीकाय है । अतः किसी भी प्रकार का पानी भस्म या चूने से अचित्त हो सकता है | जैनधर्म के सुस्थापित नियमो में से एक नियम यह है कि सब को उबाले हुआ पानी ही पीना चाहिये । उसमें साधु-साध्वी और गृहस्थ जो तप करते उसको इस नियम में कोई छूट नहीं है । जैन जीवविज्ञान के अनुसार पार्न स्वयं सजीव है। वर्तमान में जैनदर्शन के किसी भी विद्वान/निष्णात/पंडित/तत्त्वज्ञ सामान्य विज्ञानविद् से पूछा जाय कि जैन धर्म में पानी को उबालकर पीर का विधान क्यों किया गया है, तो सभी एकसाथ कह देते हैं कि 'कच्चं पानी स्वयं सजीव है और उसमें भिन्न भिन्न प्रकार के जीवाणु भी होते । जिससे शरीर में बहुत से रोग होने कि संभावनाएँ है । सचित्त पानी । उसकी निरंतर उत्पत्ति चालू रहती है, जो पानी उबालने के बाद बंद है जाती है । अतः पानी उबाल कर पीना चाहिये । यहाँ ऐसा प्रश्न किय 68 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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