Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 13
________________ भूमिका उपाध्ये ने हरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है । इस प्रकार उन्होंने धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक रचना माना है । यदि धूर्ताख्यान की कथा का निबन्धन हरिभद्र ने स्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना से किया है तो वे निश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन - काल से पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में यह कथा उपलब्ध है । भाष्य में इस कथा का सन्दर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है xii सस- एलासाढ-मूलदेव, खण्डा य जुण्णउज्जाणे । सामत्थणे को भत्तं, अक्खात जो ण सद्दहति ॥ चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ॥ वणगयपाटण कुंडिय, छम्पास हत्थिलग्गणं पुच्छे । रायरयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था || भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक जो कि चूर्णि और हरिभद्र के धूर्ताख्यान में है, पूरी तरह ज्ञात है, वे मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का आद्यस्रोत नहीं हो सकता । भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान सन्दर्भ रूप में आये हैं, उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है । अतः यह निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है । चूर्णि तो स्वयं भाष्य पर टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में लगभग तीन पृष्ठों में यह आख्यान आया है, अतः यह भी निश्चित है कि चूर्णि भी इस आख्यान का मूलस्रोत नहीं है । पुनः चूर्णि के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट लिखा है "सेसं धुत्तावखाणगाहाणुसारेण” ( पृ० १०५ ) । अतः निशीथभाष्य और चूर्णि इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते । किन्तु हमें निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई जानकारी नहीं है, जिसमें यह आख्यान आया हो । जब तक अन्य किसी आदिस्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है, तब तक हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत मौलिक रचना क्यों नहीं माना जाये । किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार और चूर्णिकार, इन दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित हो जायेगी । यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर-निर्वाण संवत् १०५५ या विक्रम संवत् ५८५ तथा Jain Education International --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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