Book Title: Panchakparihani tatha Aalochanavidhan Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ September-2006 समयरकयविमलमइणा(णो), जइणो सुद्धं जिणिंदमयरइणो । पिंडं सेज्जं वत्थं पत्तं च पुरा गवेसंति ||८|| सुद्धा संपत्तीए पंचगपच्छित्तलच्छियधिईए । तदसंभवे सदसगं तदभावे पंचदसगजुयं ॥९॥ तदसइ वीसगसहियं तव्विरहे भिन्नमाससंजुत्तं । तस्ससइ सलहुमासग-मेवं तरतमविभागेण ॥१०॥ ता नेयं जा च्छग्गुरु मुच्चिस्सं जेण सा तवोभूमी । छत्तीसपयनिबद्धा विनेया पणगपणिहाणी ॥११।। तत्तो च्छेओ मूलं अणवठ्ठप्पो य होइ पारिंची । तावत्थोयं पढमं सेविज्जइ लहु गुरुं पच्छा ॥१२॥ जयणाए वट्टियव्वं न हु जयणा जेण भंजए अंगं । एसा जिणाण आणा ताएच्चिय सुज्झए जीवो ॥१३॥" पुणरवि भणइ विणेओ "पच्छित्तं कम्मि कम्मि दोसम्मि । कयरं कयरं भयवं ! भणियं समयम्मि ?" गुरुराह ||१४|| पंचगपरिहाणीए निसीहपमुहेसु च्छेयगंथेसु । दीसइ भणियं मूलं भवमूले मूलकम्मम्मि ॥१५॥ पंचिंदियववरोवग-दायगदोसम्मि एगकल्लाणं । संकाए जं संकइ पावइ तं तस्स पच्छित्तं ॥१६॥ अहकम्मे उद्देसिय चरमतिगे३ मीस चरिमजुयलम्मि २। बायर पाहुडियाए१ संपइ १ भाविसु १ निमित्तेसु ॥१७॥ सप्पच्चवाय परगामाहडदोसम्मि १ लोभपिंडम्मि १। गाढपणिदियतावग-दायगदोसम्मि १ अंगारे १ ॥१८॥ साहारण१ विगलिंदियमारग ३ पगलंतकुट्ठदाईसु ।१ कट्ठाइपाओया-रूढदायगे १ चित्त गुरुपिहिए ॥१९॥ अव्ववहिय भणियसाहारण निक्खिविउं १ म्मीस १ पिहिय १ साहा(ह)रिये श अपरिणय१ छड्डिएK१ अचित्तगुरुदव्वसाहरिए १ ॥२०॥ वसहि बहि१ रंतरे वा १ दुविहे संजोयणाए दोसे वा । चउगुरुगं पच्छित्तं भणियं कम्मट्ठमहणेहिं ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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