Book Title: Pali Bhasha ke Bauddh Grantho me Jain Dharm
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 7
________________ 12 प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ चरमसाधना को दृष्टि में रखकर ही चतुर्याम का पालिसूत्रों में उक्त अर्थ प्रतिपादित किया गया है। सब प्रकार के पानी के त्याग का सीधा अर्थ यह है कि जैन लोग ठंडे पानी में जीव मानते हैं और उसका प्राशुक बनाकर ही उपयोग करते हैं। जैन मुनि अप्राशुक ठंडापानी नहीं ले सकते। इस आचरण से पालि ग्रन्थ अच्छीतरह परिचित हैं। उपालिसुत्त में स्पष्ट लिखा है महावीर 'सीतोदकपटिक्खित्तो' (ठण्डेपानी का त्यागी) 'उण्होदक पटिसेवी' (उष्ण जल लेने वाले) थे। जैन श्रावकों के कुछ व्रत ___ अंगुत्तर निकाय के तृतीय निदान के 70 वें सूत्र में निगराठोपसथ नाम से जो वर्णन दिया गया है उससे हमें जैन श्रावकों के दिखत और पौषध ब्रतों का परिचय मिलता है। उक्त सूत्र में भग० बुद्ध ने विशाखा नाम की उपासिका के लिए गोपालक-उपोसथ और निगण्ठ उपोसथ का परिहास करते हुए, आर्य उपोसथ का उपदेश दिया है। निगण्ठ उपोसथ का वर्णन इस प्रकार है: हे विशाखे! श्रमणों की एक जाति है जिसे निगण्ठ कहते हैं। वे लोग अपने श्रावकों को बुलाकर कहते हैं कि “प्रत्येक दिशा में इतने योजन से आगे जो प्राणी हैं उनका दण्ड-हिंसक व्यापार--छोड़ो। देखो विशाखे! वे निर्ग्रन्थ श्रावक अमुक अमुक योजन के बाद न जाने का निश्चय करते हैं और उतने योजन के बाद प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं तथा साथ ही वे मर्यादित योजन के भीतर पाने वाले प्राणियों की हिंसा का त्याग नहीं करते, इससे वे प्राणातिपात से नहीं बचते हैं।" भग० बुद्ध के इन वचनों में जैन श्रावकों के 12 व्रतों में से प्रथम गुणव्रत-दिव्रत-को पहिचानना कठिन नहीं है। दिग्वत का अर्थ है पूर्व, उत्तर, दक्खिन, पच्छिम की दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशात्रों और विदिशाओं में न जाना। इससे श्रावक अपने अल्प इच्छा नाम के गुण की वृद्धि करता है। उसी प्रसंग में आगे कहा गया है। वे लोग उपोसथ के दिन (तदह उपोसथे) श्रावकों से इस तरह कहते हैं कि “हे भाइयो! तुम सब कपड़ों का त्याग कर ऐसा कहो कि मैं किसी का नहीं हूँ और मेरा कोई नहीं है इत्यादि। पर यह कहने वाले यह निश्चय रूप से जानते हैं कि अमुक मेरे मातापिता हैं, अमुक मेरा पुत्र, स्त्री, स्वामी एवं दास है। पर ये इस तरह जानते हुए भी जब यह कहते हैं कि मैं किसी का नहीं हूं और मेरा कोई नहीं है, तो वे अवश्य झूठ बोलते हैं।" इन शब्दों में जैन गृहस्थ के बारह व्रतों में से द्वितीय शिक्षाव्रत-पौषध-का उल्लेख मिलता है। जैन ग्रंथों में यह पौषधवत उत्तम, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार से कहा गया है। उत्तम पौषध वह है जिसमें जैन श्रावक सब प्रकार के आहार का त्याग कर मर्यादित समय के लिए वस्त्र, अलंकार, कुटुम्ब से सम्बन्ध आदि का त्याग कर देता है। मध्यम उपोसथ में यद्यपि विधि पूर्ववत् ही रहती है पर श्रावक उसदिन जलमात्र ग्रहण करता है। जघन्य पौषध में श्राहार भी ग्रहण करता है। इस जघन्य उपोसथ को हम उक्त प्रसंग में ही परिहास के ढंग से वर्णन किये गये गोपालक उपोसथ के रूप में पहचान सकते हैं: "हे विशाखे! जैसे सायंकाल ग्वाले गायों को चराकर उनके मालिकों को वापस सौंपते हैं तब कहते हैं कि आज अमुक जगह में गायें चरी, अमुक जगह में पानी पिया और कल अमुक अमुक स्थान में चरेंगी और पानी पियेंगी...आदि। वैसे ही जो लोग उपोसथ लेकर खानपान की चर्चा करते हैं वे अाज हमने अमुक खाया, अमुक पिया और अमुक खायेंगे, अमुक पान करेंगे, ऐसी चर्चा करने वालों का उपोसथ गोपालक उपोसथ है।" इस तरह बौद्ध ग्रन्थों में विखरी हुई सामग्री को जैन ग्रन्थों से तुलना कर तत्कालीन जैन धर्म का रूप अच्छी तरह जाना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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