Book Title: Pali Bhasha ke Bauddh Grantho me Jain Dharm Author(s): Gulabchandra Chaudhary Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 5
________________ प्राचार्य विजयवल्लमसूरि स्मारक ग्रंथ की भावना में नहीं, आर बुद्ध चित्त की भावना में लगा रहता है, कायिक भावना में नहीं। उक्त बालोचना से महावीर के मत का निष्कर्ष निकालना कोई कठिन नहीं। महावीर के मत में 'कायन्वयं चित्तं होति, चित्तन्वयो कायो होति' अर्थात् काय और मन दोनों की भावना से मुक्ति मिल सकती है न कि केवल काय या केवल मन की भावना से। इसी तरह पाप भी दोनों के संयोग से होगा। इससे अब हम यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि मन और काय की द्वन्द्वात्मक क्रिया पर नियंत्रण करने के लिए महावीर ने तपस्या के आधार को कायमनोविज्ञानात्मक बनाया और मनोसंवर तथा कायक्लेश को अपने धर्म में महत्त्व दिया। उनका कहना था कि : पुरुष जिन सुखदुःखों का अनुभव करता है वह सब पूर्वजन्म में किये कर्म के कारण ही, उसे कड़वी दुष्कर तपस्या से नष्ट करो और जो अब यहां वचन मन को संवृत कर कर्म करोगे तो भविष्य में पाप न होंगे। इस तरह पुराने कर्मों का तपस्या से अन्त करने पर और नवीन कर्मों को न करने से भविष्य में आश्रव न होगा और श्राश्रव न होने से कर्मों का क्षय और कर्मों के क्षय होने से दुःखों का नाश तथा दुःखों के नाश से वेदना का नाश और वेदना के नाश से सब पाप जीर्ण हो जावेंगे'। उनका दूसरा कथन था कि: पूर्व जन्ममें किये गये पापकर्म यदि अविपक्वफलवाले होंगे तो उनके कारण दुःख वेदनीय श्राश्रव अाते रहेंगे जिनका जन्मान्तर में फल मिलेगा। उनका उपदेश था कि सुख से सुख नहीं पाया जा सकता, दुःख से ही सुख मिल सकता है। यदि सुख से सुख मिल सके तो राजा श्रेणिक भी उसे पा सकता है। पालि के सत्तों से महावीर के क्रियावाद के अतिरिक्त उनके ज्ञानवाद का भी थोडा संकेत मिलता है। संयुत्तनिकाय के चित्तसंयुत्त में अपना अभिमत प्रकट करते हुए महावीर ने कहा है कि ः “सद्धाय खो गहपति आणं एव पणीततरं" अर्थात् श्रद्धा से बढ़कर कहीं ज्ञान है। यह कथन जैन ग्रन्थों से मिलता है। जैन दर्शन में ज्ञान को स्वपरप्रकाशक माना गया है और उसे 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं' के रूप में भी स्वीकृत किया है। आचारमार्ग पालि ग्रन्थों से हमें जैन श्रावकों एवं मुनियों के प्राचारविषयक नियमों की भी थोड़ी बहुत जानकारी होती है। इन वर्णनों से मालूम होता है कि निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के नियमों का एक व्यवस्थित रूप था जिनका पालन उस समय एक विशिष्ट वर्ग के लोग करते थे। इतना ही नहीं, भग० बुद्ध ने बुद्धत्वप्राप्ति के पहले जिन साधना मार्गों और नियमों का पालन कर त्याग किया था, उनमें कुछ ऐसे थे जो निग्रन्थ सम्प्रदाय में तब प्रचलित थे और आज भी पालन किये जाते हैं। उदाहरण के लिए मज्झिमनिकाय के महासीहनाद को ही लें। इस सूत्र में अचेलक सम्प्रदाय के रूप में जैन मुनियों के कुछ प्राचारों का वर्णन मिलता है । यद्यपि पालि ग्रन्थों में अचेलक (वस्त्ररहित) का अर्थ आजीवक सम्प्रदाय ही लिया गया है पर जैनागमों को देखने से मालूम होता है कि अचेलक निम्रन्थसम्प्रदाय में भी थे । स्वयं महावीर वस्त्ररहित (नग्म) थे। श्राजीवक भी नम रहते थे। प्रो. याकोबी ने पालि ग्रन्थों में वर्णित श्राजीवकों के प्राचारों से जैनाचारों की समानता तथा जैनागमों में वर्णित महावीर और श्राजीवक नेता मक्खली गोशाल का ६ वर्षों तक निरन्तर साहचर्य देखकर यह निष्कर्ष निकाला है कि आजीवक और निर्ग्रन्थ आपस में एक दूसरे से अवश्य प्रभावित हुए हैं। जैनों की मान्यता है कि भग० महावीर के पहले जैन परम्परा के प्रतिष्ठापक भग० पार्श्वनाथ हो गये हैं १. चूलदुक्खक्खन्धसुत्त। २. अंगुत्तरनिकाय, चतुक्कनिपात, १६५ सुत्त । ३. चूलदुक्खक्वन्धसुत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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