Book Title: Paksh Vichar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ नस संख्या मात्र का निर्देश किया है, (उदाहरण नहीं दिये । न्यायप्रवेश में सोदाहरण नव पक्षाभास निर्दिष्ट हैं। ३-आ० हेमचन्द्र ने साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को और साध्यधर्म मात्र को पक्ष कहकर उसके दो श्राकार बतलाए हैं, जो उनके पूर्ववर्ती माणिक्यनन्दी (३. २५-२६, ३२) और देवसूरि ने (३. १६-१८) भी बतलाए हैं । धर्मकीर्ति ने सूत्र में तो एक ही श्राकार निर्दिष्ट किया है पर उसकी व्याख्या में धर्मोतर ने ( २.८) केवल धर्मी, केवल धर्म और धर्मधर्मिसमुदाय रूप से पक्ष के तीन श्राकार बतलाए हैं। साथ ही उस प्रत्येक प्राकार का उपयोग किस-किस समय होता है यह भी बतलाया है जो कि अपूर्व है। वात्स्यायन ने (न्यायभा० १.१.३६ ) धर्मविशिष्ट धर्मी और धर्मिविशिष्ट धर्म रूप से पक्ष के दो प्राकारों का निर्देश किया है। पर आकार के उपयोगों का वर्णन धर्मोत्तर की उस व्याख्या के अलावा अन्यत्र पूर्व ग्रन्थों में नहीं देखा जाता। माणिक्यनन्दी ने इस धर्मोत्तरीय वस्तु को सूत्र में ही अपना लिया जिसका देवसूरि ने भी सूत्र द्वारा ही अनुकरण किया । श्रा० हेमचन्द्र ने उसका अनुकरण तो किया पर उसे सूत्रबद्ध न कर वृत्ति में ही कह दिया--प्र० मी० १.२.१३-१७ । ४-- इतर सभी जैन तार्किकों की तरह श्रा० हेमचन्द्र ने भी प्रमाण सिद्ध, विकल्पसिद्ध और उभयसिद्ध रूप से पक्ष के तीन प्रकार बतलाए हैं। प्रमाणसिद्ध पक्ष मानने के बारे में तो किसी का मतभेद है ही नहीं, पर विकल्पसिद्ध और उभयसिद्ध पक्ष मानने में मतभेद है । विकल्पसिद्ध और प्रमाण-विकल्पसिद्ध पक्ष के विरुद्ध, जहाँ तक मालूम है, सबसे पहिले प्रश्न उठानेवाले धर्मकीर्ति ही हैं । यह अभी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता कि धर्मकीर्ति का वह श्राक्षेप मीमांसकों के ऊपर रहा या जैनों के ऊपर या दोनों के ऊपर । फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि धर्मकीर्ति के उस आक्षेप का सविस्तर जवाब जैन तर्कग्रन्थों में ही देखा जाता है। जवाब की जैन प्रक्रिया में सभी ने धर्मकीर्ति के उस आक्षेपीय पद्य (प्रमाणवा० १.१६२ ) को उद्धत भी किया है। मणिकार गङ्गेश ने पक्षता का जो अन्तिम और सूक्ष्मतम निरूपण १ 'उच्यते-सिषाधयिषाविरह सहकृतसाधकप्रमाणाभावो यत्रास्ति स पक्षः, तेन सिषाधयिषाविरहसहकृतं साधकप्रमाणं यत्रास्ति स न पक्षः, यत्र साधकप्रमाणे सत्यसति वा सिषाधयिषा यत्र योभया भावस्तत्र विशिष्टाभावात् पक्षत्वम् ।'-चिन्ता० अनु० गादा० पृ० ४३१-३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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