Book Title: Paksh Vichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ १६३ जैनग्रन्थों में भी तीनों विशेषणों की व्यावृत्ति स्पष्टतया बतलाई गई है। अन्तर इतना ही है कि माणिक्यनन्दी ( परी० ३.२०.) और देवसूरि ने (प्रमाणन ३. १४-१७ , तो सभी व्यावृत्तियाँ धर्मकीर्ति की तरह मूल सूत्र में ही दरसाई हैं जब कि श्रा. हेमचन्द्र ने दो विशेषणों की व्यावृत्तियों को वृत्ति में बतलाकर सिर्फ अबाध्य विशेषण की व्यावृत्ति को सूत्रबद्ध किया है। प्रशस्तपाद ने प्रत्यक्षविरुद्ध, अनुमानविरुद्ध, अागमविरुद्ध, स्वशास्त्रविरुद्ध और स्ववचनविरुद्ध रूप से पाँच बाधितपक्ष बतलाए हैं। न्यायप्रवेश में भी बाधितपक्ष तो पाँच ही हैं पर स्वशास्त्रविरुद्ध के स्थान में लोकविरुद्ध का समावेशहै। न्यायबिन्दु में आगम और लोकविरुद्ध दोनों नहीं हैं पर प्रतीतिविरुद्ध का समावेश करके कुल प्रत्यक्ष, अनुमान, स्ववचन और प्रतीतिविरुद्ध रूप से चार बाधित बतलाए हैं । जान पड़ता है, बौद्ध परम्परागत आगमप्रामाण्य के अस्वीकार का विचार करके धर्मकीर्ति ने श्रागमविरुद्ध को हटा दिया है । पर साथ ही प्रतीतिविरुद्ध को बढ़ाया । माणिक्यनन्दी ने (परी० ६.१५) इस विषय में न्याय बिन्दु का नहीं पर न्यायप्रवेश का अनुसरण करके उसी के पाँच बाधित पक्ष मान लिये जिनको देवसूरि ने भी मान लिया । अलबत्ता देवसूरि ने (प्रमाणन० ६. ४०) माणिक्यनन्दी का और न्यायप्रवेश का अनुसरण करते हुए भी अादिपद रख दिया और अपनी व्याख्या रत्नाकर में स्मरणविरुद्ध, तर्कविरुद्ध रूप से अन्य बाधित पक्षों को भी दिखाया। श्रा हेमचन्द्र ने न्यायबिन्दु का प्रतीतिविरुद्ध ले लिया, बाकी के पाँच न्यायप्रवेश और परीक्षामुख के लेकर कुल छः आधित पक्षों को सूत्रबद्ध किया है। माठर (सांख्यका० ५) जो संभवतः न्यायप्रवेश से पुराने हैं उन्होंने पक्षाभासों की - - -- साध्यत्वेनेष्टं साधनत्वेनाप्यभिधानात् । स्वयमिति वादिना । यस्तदा साधनमाह । एतेन यद्यपि क्वचिच्छास्त्रे स्थितः साधनमाह, तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्धर्मिण्यनेकधमाभ्युपगमेऽपि, यस्तदा तेन वादिना धर्मः स्वयं साधयितुमिष्टः स एव साध्यो नेतर इत्युक्तं भवति । इष्ट इति यात्रार्थे विवादेन साधनमुपन्यस्तं तस्य सिद्धिमिच्छता सोऽनुक्तोऽपि वचनेन साध्यः । तदधिकरणत्वाद्विवादस्य । यथा परार्थाश्चतुरादयः संघातत्वाच्छयनासनाद्यङ्गवद् इति, अत्रात्मार्था इत्यनुक्तावप्यात्मार्थता साध्या, अनेन नोक्तमात्रमेव साध्यमित्युक्तं भवति । अनिराकृत इति एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनै निराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् ।'-- न्यायबि ३. ४१-५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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