Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 6
________________ है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध किए गए मूल श्रुतोगम ‘पाहुड' रूप में ही उपलब्ध होते हैं। कसायपाहुड, षट्खण्डागम, समयपाहुड, पवयणपाहुड, पंचत्थिकायपाहुड, दसणपाहुड, भावपाहुड आदि तीर्थंकर की परम्परा की ओर ही संकेत करते हैं। 'पाहुड' को संस्कृत भाषा में 'प्राभृत' कहते हैं। 'गोमटसार' जीवकाण्ड (गा. 341) में समस्त श्रुतज्ञान को 'पाहुड' कहा है। आचार्य अमितगति ने 'योगसारप्राभृतम्' की रचना ग्यारहवीं शताब्दी में इसी परम्परा-क्रम में अनुबद्ध की थी। मुनि रामसिंह ने उसी परम्परा में 'पाहुड दोहा' की रचना कर श्रुत-परम्परा की मूलधारा को ही प्रवाहित किया था। इन सभी अध्यात्मप्रधान रचनाओं में आत्मा को केन्द्रबिन्दु बनाकर अखण्ड आत्मानुभूति को विविध संकेतों द्वारा अभिव्यंजित किया गया है। . . . डॉ. प्रेमसागर जैन का यह कथन आज भी यथार्थ है-“मध्यकाल के प्रसिद्ध मुनि रामसिंह का ‘पाहुड दोहा' अपभ्रंश की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें वे सभी प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं, जो आगे चलकर हिन्दी के निर्गुणकाव्य की विशेषता बनीं। उनमें रहस्यवाद प्रमुख है।" कुछ विद्वानों का यह विचार है कि भारतीय दार्शनिक आत्मा और परमात्मा की सत्ता भिन्न-भिन्न मानते हैं तथा जीवात्मा परमसत्ता का अंश है, इसलिए परमब्रह्म से जीवात्मा की उत्पत्ति होती है और उस परमसत्ता में वह विलीन हो जाती है। इस प्रकार परमसत्ता एक है, उसका परमब्रह्म से मिलन होना ही रहस्य का मूल है। वस्तुतः सम्पूर्ण सृष्टि परमब्रह्म की ही एक सत्ता है। जैनदर्शन यथार्थ में इससे भिन्न है। अतः उसमें रहस्यवाद की अभिव्यक्ति किस प्रकार सम्भव है? गोस्वामी तुलसीदासजी ने “ईश्वर अंश जीव अविनाशी, सच्चेतन घन आनन्दराशी” कहकर इस मान्यता का प्रतिपादन किया है। जैन सन्तकवि बनारसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रामायण के सम्बन्ध में आध्यात्मिक दृष्टि से निम्नलिखित रूपक की अभिव्यंजना की है विराजै रामायण घट माहिं। मरमी होय मरम सो जानै, मूरख मानै नाहिं ॥ विराजै. ॥ आतम राम ज्ञान गुन लछमन, सीता सुमति समेत। शुभ उपयोग वानरदल मंडित, वर विवेक रनखेत ॥विराजै.॥ -बनारसी विलास, पृ. 242 अर्थात् परम पुरुष राम आत्मा हैं, लक्ष्मण ज्ञान गुण हैं, सीता सुमति हैं, शुभोपयोग रूपी बन्दरों की सेना से वे सुशोभित हैं और भेदविज्ञान के क्षेत्र में अलख जगाते हैं। 1. डॉ. प्रेमसागर जैन : जैन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि, भूमिका, पृ. 8 4 : पाहुडदोहा

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