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करे तो भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, कोई वस्त्रसहित साधु-सन्त मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता, केवल बहुत शास्त्रों को पढ़ लेने से कोई आत्मज्ञानी नहीं होता, वन में रहने मात्र से कोई साधु-सन्त नहीं हो जाता, वस्त्र छोड़ देने मात्र से कोई नग्न नहीं होता, किन्तु सच्ची नग्नता शुद्धभाव के होने पर ही होती है, शुद्ध अपने ही शुद्ध स्वभाव (शुद्धोपयोग) से है, इत्यादि। साधना की चरम अवस्था समाधि कही गई है। जैन और बौद्ध साहित्य में यह समान रूप से लक्षित होती है। अपभ्रंश के कवि सरहपा समाधि के लिए दो बातें आवश्यक मानते हैं-अपने स्वभाव की पहचान
और आत्मध्यान में लीनता। (दोहाकोष, पृ. 12, 15) 'परमात्मप्रकाश' (1.23) और 'पाहुड दोहा' (50) में रहस्यानुभूति के रूप में इसका वर्णन मिलता है।
डॉ० सूरजमुखी जैन ने जैन रहस्यवाद के निम्नलिखित तत्त्वों का उल्लेख किया .
1. आध्यात्मिक अनुभूति की समता, 2. आत्मा और परमात्मा में ऐक्य की भावना, 3. कर्मबद्ध आत्मा का कर्मरहित आत्मा के प्रति समर्पण,
4. अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-शक्तिमय आत्मा की सत्ता का दृढ़ निश्चय और उसकी पर्याय की शुद्धिकरण का विश्वास,
5. सांसारिक प्रलोभनों का त्याग, 6. आत्मानुभूति की प्राप्ति के लिए गुरु-उपदेश और गुरु का महत्त्व 7. बाह्य आडम्बर का त्याग, 8. चित्तशुद्धि तथा आत्मनिर्मलता का विशेष पुरुषार्थ, 9. विकास हेतु सोपान-मार्ग का अवलम्बन, 10. पाप-पुण्य का त्याग, 11. योगमार्ग का निरूपण, 12. प्रतीकों एवं पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग, 13. अभिव्यक्ति की सरसता, 14. आत्मा की कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति का विश्वास, 15. आत्मा और परमात्मा में तात्त्विक अन्तर न होने पर भी व्यवहारनय की
1. भावपाहुड, गा. 4 2. सुत्तपाहुड, गा. 23 3. समयसार, गा. 390 4. नियमसार, गा. 124 5. भावपाहुड, गा. 54 6. भावपाहुड, गा. 77 7. डॉ. सूरजमुखी जैन : अपभ्रंश का जैन रहस्यवादी काव्य और कबीर, पृ. 59
8 : पाहुडदोहा